Saturday 31 October, 2009

डाल्टनगंज -पलामू के साहित्यकार और उनकी कृतियाँ

संकलित लेख
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डाल्टनगंज -पलामू के साहित्यकार और उनकी कृतियाँ

पलामू में वन-सम्पदा प्रचुर मात्रा में है, तो दूसरी ओर यहां लेखक, कलाकारों एवं फनकारों की कमी नहीं। पलामू की पथरीली धरती पर महुआ खाकर एव एवं ओलो की मार सह कर भी यहां के साहित्यकार-कलमकार निरंतर साहित्य साधना करते रहे हैं। पलामू की धरती को यहाँ के कलमकार अपनी-अपनी जीवनत कालयजी रचनाओं से सिंचित आहलाक्षित एवं गौरवान्वित करते रहे है। अनक लखक, कवि अपनी रचनाओं के माध्ययम से सम्मानित होते रहे हैं। कहानी, नाटक उपन्यास, गजल लघुकथा, संस्मरण, आलोचना, समीक्षा, शोधग्रथ, शोधप्रबन्ध, खंड काव्य इत्यादि साहित्य की विविध विधओं में यहाँ के लेखकों की कलम निरंतर चल रही है। इन रचनाकरों मे कुछ अनुभव प्राप्त प्रौढ़ रचनाकार तथा कुछ नयी पीढ़ी भी आते हैं।

पुरानी पीढ़ी के रचनाकारों मे सर्व प्रथम पंडित रामदीन पाण्डेय का नाम सामने आता है। श्रावण शुक्ल सप्तमी 1852 को जन्में पंडित रामदीन पाण्डेया की कई पुस्तकों का प्रकाशन हुआ, जो हिन्दी एवं संस्कृत मे हैं। इनमें सौरनन्दन काव्यम, कुमार दासस्य, जानकी हरण्म्, बिहरे जैनधर्म, ज्योत्सना (नाटक) जीवन ज्योति, जीवन कण, जीवन यज्ञ, जीवन जिज्ञासा, (नाटक) विद्यार्थी, चलती पिटारी, वासना (उपन्यास़ काव्य की उपेक्षिता (आलोचना) प्राचीन भारत की संग्रमिकता (शोधग्रन्थ), हिन्दी में स्लैंग प्रयोग, (निबन्ध), देव काव्यम, भारतनेतृप्रकाशम वापोश्चरित (संस्कृति), पलामू का इतिहास, पंच एकांकी व दो एकांकी मुख्य हैं।

हवलदारी राम गुप्त हलधर की बहुचर्चित पुस्तक ‘पलामू का इतिहास’ तब प्रकाशित हुई, जब पलामू का कोई इतिहास उपलब्ध नहीं था। महावीर वर्मा ने भी पलामू का संक्षिप्त इतिहास कोयल के किनारे-किनारे लिखा था। n ने भी अपने जीवन काल में दो तीन पुस्तकों की रचना की थी और साहत्य जगत में एक स्थान हासिल किया था। 30 अगस्त 1920 में जन्में ज्योति प्रकाश की कई पुस्तके प्रकाशित हुई। इनमें झिलमिल (उपन्यास), सीधा रास्ता (बाल साहित्य) बुल-बुल, दिल की गहराई से, धूप और छाया (कहानी संग्रह) तथा ज्योति प्रकाश व्यक्तित्व और कृतित्व। इनके बाद की पीढ़ी के साहित्यकारों की उपलब्धि भी कम नहीं है।

16 मई 1927 को जन्में डा. जगदीश्वर प्रसाद की अब तक 21 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें छायावाद के लाक्षजिक प्रयोग, शब्दशक्तियों का विकास मूलक अध्ययन, रीति काव्यः एक नया मूल्यांकन, कबीर की प्रगतिशील चेतना, नन्ददास: दशंन एवं काव्य, भक्त सिद्धांत: एक विनियोगात्मक व्याख्या, निराला के काव्य की सांस्कृतिक चेतना, प्रकाशवीथी स्वछन्दतावाद और ठाकुर की कविता, तुलसी का मानवतावाद, शब्द-शक्ति: हिन्दी विवेचकों की दृष्टि में हिन्दी समीक्षा के आयाम शोध ग्रन्थ), गूंज अन्तर की, सर्जना के पंख, शिखर लक्ष्य हे (कविता संग्रह़, प्रतिशोध खण्ड काव्य, साहित्यधारा, चिन्तन की रेखाएं, गीता दर्शन (निबन्घ संग्रह़, इतिहास रचता हूद्द। सितम्बर 1933 को जन्में दीनेश्वर प्रसाद दीनेश की अब तक पांच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है, जिसमें वजीरा पानी पिला, (कहानी संग्रह़), बेचारा केवट उदास है, संझवाती (काव्य संग्रह), बज्जिका बरवै रामायण (महाकाव्य) एवं डीह कथा (परिकथा) है।

21 अगस्त 1935 को जन्में सत्यनारायण ‘ नाटे ’ की अब तक छः पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें प्रेमचंद (जीवनी), भारखंड के सपूत, भारखंड लोककथाएं, युगबोध (लघु कथा संग्रह), जबडे़ अकाल के, गंगू और पेड़ (चित्रकथा), सत्यनारायण नाटे के लतीफे हैं। आकृतियाँ उभरती हुई, मोर के पंख, मोर के पांव तथा लघुकथाएं अंजुरी भर संग्रह के सहयात्री हैं। 15 फरवरी 1938 को जन्मे डा. ब्रज किशोर पाठक की दो पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं- शहीद नीलाम्बर-पीताम्बर साहित्यकार अशोक लव बहुआयामी हस्ताक्षर 1938 में जन्में डा. नागेन्द्र नाथ् शरण हिन्दी और अंग्रेजी में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं। हिन्दी एवं अंग्रेजी में इनकी अब तक आठ पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें -गीत मैं गाता रहा, बदलते मौसम में (कवित संग्रह), लघुकथाएं उनकी और मेरी, बिमर्श को बहाने (निबन्ध संग्रह), मैसेज आफ द फ्लूट (अंग्रेजी काव्य), नीलाम्बर, पीताम्बर (द हीरोज ऑफ 1857 रन पलामू) एवं ए क्रिटिकल स्टडी ऑफ द नॉवेल आफ आर.के. नारायण।

(4 अप्रैल, 1938 को जन्में सिद्धेश्वर नाथ ओंकार की अब तक पांच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं प्रकाशित पुस्तकों में क्रान्ति विविधा, क्रान्ति चेतना, श्राद्धाजंलि (काव्य संग्रह) एवं अखिल प्रबध काव्य है। 7 जनवरी, 1941 को जन्में जर्नादन प्रसाद की अब तक पांच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें मेरी मूंछ कट गयी, गुदगुदी, सबरंग, राष्ट्रीय गीत एवं हरि नाम भजन कर लो हैं। 1947 को जन्में नेश नाहर की दो पुस्तके प्रकाशित हैं मांडवी (खण्ड काव्य) और छिपे फूल उभरे कांटे। 20 जुलाई,1948 को जन्मी डा.लक्ष्मी विमल की अब तक चार पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें स्पन्दन और अनुगूंज (काव्य संग्रह) सादा लिफाफा (लघुकथा संग्रह), गुचां-ए-गजल (गजल संग्रह) त्रिमूलधारें (महिमा संग्रह) इसके अतिरिक्त उर्दू के मशहूर शायर नादिम बल्खी की एक पुस्तक ‘शब्दो की आवाज’ इन्होने हिन्दी मे लिपयांतर किया है। इनका शोध प्रबन्ध ‘सूरदास का शील विधान’ भी यत्रस्थ है। सन् 2006 में आकल मृत्यु की शिकार श्यामा शरण श्री लेखनी तो अब अवरुद्ध हो चुकी हैं, परन्तु उनकी भी 6 पुस्तकें प्रकाशीत हो चुकी हैं।

नदी समुद्र और किनारा, जीवन धारा (कहानी संग्रह), जीवन तेरे रंग अनेक (कविता संग्रह) लघुकथाए उनकी और मेरी (लघुकथा संग्रह) धूप जब आयी आंगन में (गजल संग्रह ) का न करे अबल प्रबल (निबंध संग्रह), यादों मे बसे हो तुम (उपन्यास)। 23 सितम्बर ,1948 को जन्मी इन्दु तारक की दो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं कैसे चुप रहूं और उपालभ्भ (काव्य संग्रह) पलामू की पहचान पदर्शित करने वाला अमर लोकगीत ‘सुन-सुन परदेशी पलामू जिला देख ले के गीतकार श्री हरिवंश प्रभात की रचनाओं मे पलामू जिले का समग्र दिग्र्शन होता है। 5 नवम्बर, 1949 को जन्में हरिवंश प्रभात की अब तक पांच पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें बढ़ते चरण, खुलती पंखुडिया, गी मेरी बांसुरी के, फिर भी मै हूं, बूंद-बूंद सागर ये सभी (काव्य संग्रह है)। 30 जून 1953 को जन्में डॉ. राम जी को अब तक तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमे अनुगूंज तुम्हारे लिए (गजल संग्रह) कहानी संग्रह, आघात एवं पगडंडिया (उपन्यास) हैं।

उर्दू के मशहुर शायर नादिम बल्खी की तीन पुस्तकों का हिन्दी लिपयान्तर भी इन्होंने किया है, जिसमें त्रिवेणी का पानी, कहभुकरनियां शामिल हैं।

मेदिनीनगर के वर्तमान सिविल सर्जन डा० कामेन्द्र सिंह की भी दो पुस्तकें काले बगुले और कृष्णा प्रकाशित हुई हैं। पलामू वासी महेन्द्र उपाध्याय की दो पुस्तकें रावण जिन्दा है तथा एक गजल संग्रह भी प्रकाशित है। पंडवा मोड़ के राकेश सिंह की कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। श्याम बिहारी सिंह श्यामल की तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं धपेल, अग्निपुरुष ( उपन्यास, तथा प्रेम के अकाल में । डा० विष्णुदेव दूबे ने भी अध्यात्म पर एक पुस्तक लिखी हैं, जो 2008 में प्रकाशित हुई पलामू के ग्रामीण क्षेत्र से साहित्य लेखन मे अग्रणी स्थान हासिल करने वाले रचनाकारों मे राकेश कुमार सिंह कई तथा जपला वासी विपिन बिहारी सिंह की पुस्तके प्रकाशित हुई हैं और सम्मान भी हासिल किया है।

गोर्वद्धन सिंह की एक पुस्तक (गीता से सम्बंधित) प्रकाशित हुई है। उदित तिवारी जी की भी एक पुस्तक प्रकाशित है। यहां के वरिष्ठ कवि नरेश प्रसाद नाहर की कृतियों विस्मृत करने की गुस्ताखी कोई नहीं कर सकता उनकी दो पुस्तके छिपे फुल, उभरे काटे गीत संग्रह और माण्डवी ने काफी प्रसंसा बटोरी है। इनके अलावे कई लेखक अनवरत लेखन कार्य कर रहे हैं, परन्तु अर्थभाव में वे अपनी पुस्तकें प्रकाशित नही करा पाते हैं। निरंतर लेखन कार्य में लगे लोगो में प्रो० सुभाष चन्द्र मिश्रा, प्रो० के.के. मिश्रा, कृष्ण देव झा, उदित तिवारी, विजय रंजन, तारिणी प्रासाद, सुषमा श्रीवास्तव, विनीत असर, प्रमोद अग्रवाल आदि कई कवि शामिल हैं। अभी हाल ही में 75 वर्षीय रामचन्द्र प्रसाद की पुस्तक बिखरे मोती काव्य संग्रह प्रकाशित हुई है। रामचन्द्र प्रसाद पुलिस विभाग मे हिन्दी दम तोड़ती है उस विभाग का व्यक्ति भी हिन्दी की ज्योति को जलाए रखते हुए कविता लेखन का कार्य करता है। अर्थात पलामू की बंजर धरती पर कई पौधे ऐसे भी हैं जो विपरीत जलवायु और विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी लेखनी को सुखने नहीं देते है।

Tuesday 13 October, 2009

वरिष्ठ साहित्यकार अशोक लव से शिव नारायण का साक्षात्कार

शिव नारायण
मैं वरिष्ठ साहित्यकार श्री अशोक लव के कविता - संग्रह " लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान " पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से एम फ़िल कर रहा हूँ । मैने इसके लिए श्री अशोक लव से उनके कविता -संग्रह और साहित्यिक जीवन के सम्बन्ध में विस्तृत बातचीत कीप्रस्तुत हैं इस बातचीत के अंश ----


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आपको साहित्य सृजन की प्रेरणा कैसे मिली ?
* व्यक्ति को सर्वप्रथम संस्कार उसके परिवार से मिलते हैं। मेरे जीवन में मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि ने अहम भूमिका निभाई है। पिता जी महाभारत और रामायण की कथाएँ सुनते थे। राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत कहानियाँ सुनाते थे। उनके आदर्श थे--अमर सिंह राठौड़ , महारानी लक्ष्मी बाई, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस ,भगत सिंह आदि। वे उनके जीवन के अनेक प्रसंगों को सुनते थे। इन सबके प्रभाव ने अध्ययन की रुचि जाग्रत की। मेरे नाना जी संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। वे वेदों और उपनिषदों के मर्मज्ञ थे। उनके साथ भी रहा था। उनके संस्कारों ने भी बहुत प्रभावित किया। समाचार-पत्रों में प्रकाशित साहित्यिक रचनाएँ पढ़ने की रुचि ने लेखन की प्रेरणा दी। इस प्रकार शनैः - शनैः साहित्य-सृजन के संसार में प्रवेश किया।
~ 'लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' कविता -संग्रह प्रकाशित कराने की योजना कैसे बनी ?
* मेरा पहला कविता-संग्रह ' अनुभूतियों की आहटें ' सन् १९९७ में प्रकाशित हुआ था। इससे पहले की लिखी और प्रकाशन के पश्चात् लिखी गई अनेक कविताएँ एकत्र हो गई थीं। इन कविताओं को अन्तिम रूप दिया । इन्हें भाव और विषयानुसार चार खंडों में विभाजित किया-- नारी, संघर्ष, चिंतन और प्रेम। इस प्रकार पाण्डुलिपि ने अन्तिम रूप लिया। डॉ ब्रज किशोर पाठक और डॉ रूप देवगुण ने कविताओं पर लेख लिख दिए।
कविता-संग्रह प्रकशित कराने का मन तो काफ़ी पहले से था। अशोक वर्मा, आरिफ जमाल, सत्य प्रकाश भारद्वाज और कमलेश शर्मा बार-बार स्मरण कराते थे। अंततः पुस्तक प्रकाशित हो गई। एक और अच्छी बात यह हुई कि दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने इसका लोकार्पण किया, जो महिला हैं। उन्होंने इसके नाम की बहुत प्रशंसा की।
~आपने इसका नाम ' लड़कियों ' पर क्यों रखा ?
* मैंने पुस्तक के आरंभ में ' मेरी कविताएँ ' के अंतर्गत इसे स्पष्ट किया है - " आज का समाज लड़कियों के मामले में सदियों पूर्व की मानसकिता में जी रहा है। देश के विभिन्न अंचलों में लड़कियों की गर्भ में ही हत्याएँ हो रही हैं। ...लड़कियों के प्रति भेदभाव की भावना के पीछे पुरुष प्रधान रहे समाज की मानसिकता है। आर्थिक रूप से नारी पुरुष पर आर्षित रहती आई है। आज भी स्थिति बदली नहीं है। "
समय तेज़ी से परिवर्तित हो रहा है। लड़कियाँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। आज की लड़कियाँ आसमान छूना चाहती हैं। उनकी इस भावना को रेखांकित करने के उद्देश्य से और समाज में उनके प्रति सकारात्मक सोच जाग्रत करने के लिए इसका नामकरण ' लड़कियों' पर किया। इसका सर्वत्र स्वागत हुआ है।'सार्थक प्रयास ' संस्था की ओर से इस पर चर्चा-गोष्ठी हुई थी। समस्त वक्ताओं ने नामकरण को आधुनिक समय के अनुसार कहा था और प्रशंसा की थी ।
संग्रह की पहली कविता का शीर्षक भी यही है। यह कविता आज की लड़कियों और नारियों के मन के भावों और संघर्षों की क्रांतिकारी कविता है।
~ 'लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान ' मैं आपने देशी और ग्राम्य अंचलों के शब्दों का प्रयोग किया हैक्यों ?
* इसके अनेक कारण हैं। कविता की भावभूमि के कारण ऐसे शब्द स्वतः , स्वाभाविक रूप से आते चले जाते हैं। 'करतारो सुर्खियाँ बनती रहेंगी , तंबुओं मैं लेटी माँ , छूती गलियों की गंध, जिंदर ' आदि कविताओं की पृष्ठभूमि पंजाब की है। इनमें पंजाबी शब्द आए हैं 'डांगला पर बैठी शान्ति' मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्र 'झाबुआ' की लड़की से सम्बंधित है। मैं वहाँ कुछ दिन रहा था। इसमें उस अंचल के शब्द आए हैं। अन्य कविताओं मैं ऐसे अनेक शब्द आए हैं जो कविता के भावानुसार हैं । इनके प्रयोग से कविता अधिक प्रभावशाली हो जाती हैं। पाठक इनका रसास्वादन अधिक तन्मयता से करता है।
~ आपके प्रिय कवि और लेखक कौन-कौन से हैं ?
* तुलसी,कबीर , सूरदास , भूषण से लेकर सभी छायावादी कवि-कवयित्रियाँ , विशेषतः 'निराला', प्रयोगवादी, प्रगतिवादी और आधुनिक कवि-कवयित्रिओं और लेखकों की लम्बी सूची है। ' प्रिय'शब्द के साथ व्यक्ति सीमित हो जाता है। प्रत्येक कवि की कोई न कोई रचना बहुत अची लगती है और उसका प्रशंसक बना देती है। मेरे लिए वे सब प्रिय हैं जिनकी रचनाओं ने मुझे प्रभावित किया है। मेरे अनेक मित्र बहुत अच्छा लिख रहे हैं। वे भी मेरे प्रिय हैं।
~ आपने अधिकांश कविताओं में सरल और सहज शब्दों का प्रयोग किया हैक्यों ?
* सृजन की अपनी प्रक्रिया होती है। कवि अपने लिए और पाठकों के लिए कविता का सृजन करता है। कविता ऐसी होनी चाहिए जो सीधे हृदय तक पहुँचनी चाहिए। कविता का प्रवाह और संगीत झरने की कल-कल -सा हृदय को आनंदमय करता है। यदि क्लिष्ट शब्द कविता के रसास्वादन में बाधक हों तो ऐसे शब्दों के प्रयोग से बचाना चाहिए। कविता को सीधे पाठक से संवाद करना चाहिए।
मैं जब विद्यार्थी था तो कविता के क्लिष्ट शब्दों के अर्थ जानने के लिए शब्दकोश का सहारा लेता था। जब कविता पढ़ते-पढ़ते शब्दकोश देखना पड़े तो कविता का रसास्वादन कैसे किया जा सकता है? मैंने जब कविता लिखना आरंभ किया , मेरे मस्तिष्क में अपने अनुभव थे। मैंने इसीलिये अपनी कविताओं में सहजता बनाये रखने के लिए सरल शब्दों का प्रयोग किया ताकि आम पाठक भी इसका रसास्वादन कर सके। मेरी कविताओं के समीक्षकों ने इन्हें सराहा है।
साठोतरी और आधुनिक कविता की एक विशेषता है कि वह कलिष्टता से बची है।
~ साहित्य के क्षेत्र में आप स्वयं को कहाँ पाते हैं ?
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हिन्दी साहित्य में साहित्यकारों के मूल्यांकन की स्थिति विचित्र है। साहित्यिक-राजनीति ने साहित्यकारों को अलग-अलग खेमों / वर्गों में बाँट रखा है। इसके आधार पर आलोचक साहित्यकारों का मूल्यांकन करते हैं।
दूसरी स्थिति है कि हिन्दी में जीवित साहित्यकारों का उनकी रचनाधर्मिता के आधार पर मूल्यांकन करने की परम्परा कम है।
तीसरी स्थिति है कि साहित्यकारों का मूल्यांकन कौन करे ? कवि-लेखक मौलिक सृजनकर्ता होते हैं । आलोचक उनकी रचनाओं का मूल्यांकन करते हैं । आलोचकों के अपने-अपने मापदंड होते हैं। अपनी सोच होती है। अपने खेमे होते है। साहित्य और साहित्यकारों के साथ लगभग चार दशकों का सम्बन्ध है। इसी आधार पर यह कह रहा हूँ।रचनाओं के स्तरानुसार उनका उचित मूल्यांकन करने वाले निष्पक्ष आलोचक कम हैं। इसलिए साहित्यकारों का सही-सही मूल्यांकन नहीं हो पाता। हिन्दी साहित्य से संबध साहित्यकार इस स्थिति से सुपरिचित हैं।
मैं साहित्य के क्षेत्र में कहाँ हूँ , इस विषय पर आपके प्रश्न ने पहली बार सोचने का अवसर दिया है।
मैं जहाँ हूँ , जैसा हूँ संतुष्ट हूँ । लगभग चालीस वर्षों से लेखनरत हूँ और गत तीस वर्षों से तो अत्यधिक सक्रिय हूँ। उपन्यास, कहानियाँ, कवितायें, लघुकथाएँ, साक्षात्कार, समीक्षाएं, बाल-गीत, लेख आदि लिखे हैं। कला-समीक्षक भी रहा हूँ। पत्र-पत्रिकाओं के संपादन से भी संबद्धरहा हूँ। पाठ्य-पुस्तकें भी लिखी और संपादित की हैं।
सन् १९९० में तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा ने उपराष्ट्रपति-निवास में मेरी पुस्तक ' हिन्दी के प्रतिनिधि साहित्यकारों से साक्षात्कार ' का लोकार्पण किया था। यह समारोह लगभग दो घंटे तक चला था।
सन् १९९१ में मेरे लघुकथा-संग्रह ' सलाम दिल्ली' पर कैथल (हरियाणा ) की 'सहित्य सभा' और पुनसिया (बिहार) की संस्था ' समय साहित्य सम्मलेन' ने चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित की थीं ।
इसी वर्ष मार्च २००९ में दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने ' अपने निवास पर ' लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' का लोकार्पण किया।
अनेक सहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन किया है।
पचास के लगभग सामाजिक-साहित्यिक संस्थाएँ पुरस्कृत-सम्मानित कर चुकी हैं।
इन सबके विषय मैं सोचने पर लगता है , हाँ हिन्दी साहित्य में कुछ योगदान अवश्य किया है। अब मूल्यांकन करने वाले जैसा चाहें करते रहें।
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इन दिनों क्या लिख रहे हैं ?
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लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान ' के पश्चात् जून २००९ मैं नईपुस्तक 'खिड़कियों पर टंगे लोग' प्रकाशित हुई है। यह लघुकथा-संकलन है। इसका संपादन किया है। इसमें मेरे अतिरिक्त छः और लघुकथाकार हैं।
इसी वर्ष अमेरिका मेंदो माह व्यतीत करके लौटा हूँ। वहां के अनुभवों को लेखनबद्ध कर रहा हूँ। वर्ष २०१० तक पुस्तक प्रकाशित हो जाएगी। नया कविता-संग्रह भी प्रकाशित कराने की योजना है। इस पर कार्य चल रहा है।
~ आप बहुभाषी साहित्यकार हैंआप कौन-कौन सी भाषाएँ जानते हैं?
हिन्दी,पंजाबी और इंग्लिश लिख -पढ़ और बोल लेता हूँ। बिहार में भी कुछ वर्ष रहने के कारण बिहारी का भी ज्ञान है। संस्कृत का भी ज्ञान है। हरियाणा में रहने के कारण हरियाणवी भी जानता हूँ।
~ 'बालिकाएँ जन्म लेती रहेंगी' कविता के द्वारा आपने नारी को ही नारी विरोधी दर्शाया गया हैक्यों ?
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हमारे समाज मैं पुत्र-मोह अत्यधिक है। संतान के जन्म लेते ही पूछा जाता है-'क्या हुआ ?' 'लड़का' -शब्द सुनते ही चेहरे दमक उठाते हैं। लड्डू बाँट जाते हैं। ' लडकी' सुनते ही सन्नाटा छा जाता है। चेहरों की रंगत उड़ जाती है। अधिकांशतः ऐसा ही होता है।
लड़कियों के जन्म लेने पर सबसे अधिक शोक परिवार और सम्बन्धियों की महिलाएँ मनाती हैं। गाँव - कस्बों,नगरों-महानगरों सबमें यही स्थिति है। ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना 'मनुष्य' है। वह चाहे पुरूष है अथवा महिला। फिर भी अज्ञानतावश लोग ईश्वर के सुंदर रचना ' लड़की' के जन्म लेते ही यूँ शोक प्रकट करते हैं मनो किसी की मृत्यु हो गई हो।
पुत्र-पुत्री में भेदभाव की पृष्ठभूमि में सदियों की मानसिकता है। नारी ही नारी को अपमानित करती है। सास-ननद पुत्री को जन्म देने वाली बहुओं -भाभियों पर व्यंग्य के बाण छोड़ती हैं। अनेक माएँ तक पुत्र-पुत्री में भेदभाव करती हैं।
नारी को नारी का पक्ष लेना चाहिए। इसके विपरीत वही एक-दूसरे पर अत्याचार करती हैं। समाज में लड़कियों की भ्रूण-हत्या के पीछे यही मानसिकता है। मैं वर्षों से इस स्थिति को देख रहा हूँ। 'बालिकाएँ जन्म लेती रहेंगी' कविता
में अजन्मी पुत्री अपनी हत्यारिन माँ से अपनी हत्या करने पर प्रश्न करती है। इस विषय पर खंड-काव्य लिखा जा सकता है। मैंने लम्बी कविता के मध्यम से नारियों के ममत्व को जाग्रत करने का प्रयास किया है।
~ आपकी कविताएँ मुक्त-छंद में लिखी गई हैंआपको यह छंद प्रिय क्यों है?
* प्रत्येक कवि विभिन्न छंदों में रचना करता है। किसी को दोहा प्रिय है तो किसी को गीत - ग़ज़ल। मैंने कविता लेखन के लिए मुक्त-छंद का चयन किया है। मुझको इसमें अपने भाव और विचार अभिव्यक्त करना सुखद लगता है। यह छंद मेरे स्वभाव में समा गया है। यूँ बाल-गीत अन्य छंदों में लिखे हैं।
मैं छंदबद्ध रचनाओं का प्रशंसक हूँ । गीत-ग़ज़ल-दोहे मुझे प्रिय हैं। मेरे अधिकांश मित्र गीतकार-गज़लकार हैं। मैं उनकी रचनाओं का प्रशंसक हूँ । कुछ मित्रों के संग्रहों की भूमिकाएँलिखी हैं तो कुछ मित्रों के गीत-ग़ज़ल-संग्रहों के लोकार्पण पर आलेख-पाठ किया है।
कविता किसी भी छंद में लिखी गई हो , उसे कविता होना चाहिए। मुक्त-छंद की अपनी लयबद्धता होती है, गेयता होती है, प्रवाह होता है।
~ आपने अनेक विधाओं में लेखन किया हैलघुकथाकार के रूप में आपकी विशिष्ट पहचान क्यों है?
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लघुकथा की लोकप्रियता की पृष्ठभूमि में अनेक साहित्यकारों द्वारा समर्पित भाव से किए कार्य हैं। सातवें और विशेषतया आठवें दशक में अनेक कार्य हुए। हमने आठवें दशक में खूब कार्य किए। एक जुनून था। अनेक मंचों से लघुकथा पर चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित कीं। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से चर्चाएँ-परिचर्चाएँ कीं। दिल्ली दूरदर्शन पर गोष्ठियां कराईं , इनमें भाग लिया। अन्य साहित्यकारों को आमंत्रित किया। अच्छी बहसें हुईं।
हरियाणा के सिरसा,कैथल,रेवाड़ीऔर गुडगाँव में गोष्ठियां कराईं । बिहार के पुनसिया और डाल्टनगंज तक में गोष्ठियों में सक्रिय भाग लिया। दिल्ली-गाजियाबाद में तो कई आयोजन हुए।
लघुकथा -संकलन संपादित किए,अन्य लघुकथा-संकलनों में सम्मिलित हुए। सन् १९८८ में प्रकाशित 'बंद दरवाज़ों पर दस्तकें' संपादित किया जो बहुचर्चित रहा। सन् १९९१ में मेरा एकल लघुकथा - संग्रह प्रकाशित हुआ। 'साहित्य सभा' कैथल (हरियाणा) और 'समय साहित्य सम्मलेन ' पुनसिया (बिहार ) की ओरसे इस पर चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित की गईं।
संभवतः लघुकथा के क्षेत्र में इस योगदान को देखते हुए साहित्यिक संसार में विशिष्ट पहचान बनी है।
~ 'लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' पर साहित्यकारों और पाठकों की क्या प्रतिक्रिया हुई है?
*
इस पुस्तक का सबने स्वागत किया है। इसके नारी-खंड की जो प्रशंसा हुई है उसका मैंने अनुमान नहीं किया था। इस पर एम फिल हो रही हैं। 'वुमेन ऑन टॉप' बहुरंगी हिन्दी पत्रिका में तो अस नाम से स्तम्भ ही आरंभ कर दिया गया है। इसमें इस पुस्तक से एक कविता प्रकाशित की जाती है और विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाली युवतिओं पर लेख होता है। कवयित्री आभा खेतरपाल ने ऑरकुट में 'सृजन का सहयोग' कम्युनिटी के अंतर्गत इस पुस्तक की कविताओं को प्रकाशित करना आरंभ किया था। इन कविताओं पर पाठकों और साहित्यकारों की प्रतिक्रियाएँ पाकर लगता है इन कविताओं ने सबको प्रभावित किया है। जितनी प्रशंसा मिल रही है उससे सुखद लगना स्वाभाविक है।
इनके अतिरिक्त डॉ सुभद्रा खुराना, डॉ अंजना अनिल,
अशोक वर्मा , आरिफ जमाल, डॉ जेन्नी शबनम, एन.एल.गोसाईं, इंदु गुप्ता, डॉ अपर्णा चतुर्वेदी प्रीता, कमलेश शर्मा, डॉ कंचन छिब्बर,सर्वेश तिवारी, सत्य प्रकाश भारद्वाज , प्रमोद दत्ता , डॉ नीना छिब्बर, आर के पंकज, डॉ शील कौशिक, डॉ आदर्श बाली, प्रकाश लखानी, रश्मि प्रभा, मनोहर लाल रत्नम, चंद्र बाला मेहता, गुरु चरण लाल दत्ता जोश आदि की लम्बी समीक्षाएँ मिली हैं. इन्होंने इस कृति को अनुपम कहा है। आप तो इस पर शोध कर रहे हैं।
अपनी रचनाओं का ऐसा स्वागत सुखद लगता है।

Saturday 10 October, 2009

लड़की / अशोक लव

झट बड़ी हो जाती है लड़की
और ताड़ के पेड़ - सी लम्बी दिखने लगती है
उसकी आंखों में तैरने लगते हैं
वसंत के रंग-बिरंगे सपने
वह हवा पर तैर
घूम आती है
गली- गली , शहर - शहर
कभी छू आती है आकाश
कभी आकाश के पार
चाँदी के पेड़ों से तोड़ लाती है
सोने के फल।

मन नहीं करता
उसे सुनाएँ
आग की तपन के गीत,
मन नहीं चाहता
उसकी आँखों के रंग-बिरंगे सपने
हो जाएँ बदरंग।

हर लड़की को लांघनी होती है दहलीज
और दहलीज के पार का जीवन
स्टापू खेलने
गुड्डे-गुड्डियों की शादियाँ रचाने से अलग होता है
इसलिय आवश्यक हो जाता है
हर लड़की सहती जाए आग की तपन
स्टापू खेलने के संग-संग
ताकि पार करने से पूर्व दहलीज
वह तप चुकी हो
और उसकी आँखों में नहीं तैरें
केवल वसंत के सपने।
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*पुस्तक-अनुभूतियों की आहटें ( प्रकशन वर्ष -१९९७)
@सर्वाधिकार : अशोक लव

Thursday 8 October, 2009

हदीसे- नातमाम पुस्तक / अशोक लव

कमलेश शर्मा मेरे बचपन के मित्र हैं। हम कैथल ( हरियाणा ) में साथ - साथ के मौहल्लों में रहते थे। एक ही स्कूल में पढ़ते थे। उनके पिता स्वर्गीय श्री देशराज शर्मा जी हमारे अध्यापक थे। मुझे पता नहीं था कि वे उर्दू के बहुत बड़े शायर थे। कमलेश शर्मा के साथ भी वर्षों के बाद कैथल में भेंट हुई थी। आर के एस डी कॉलेज में मेरा सम्मान था। कमलेश शर्मा साहित्य सभा के सचिव थे ( अब भी हैं ) । अपने भाषण में जब मैंने बिताए अपने बचपन के विषय में बताया तब सब आश्चर्यचकित रह गए और अपने मौहल्ले का नाम बताया तब पता चला कि कमलेश शर्मा तो मेरे बाल्यकाल के मित्र थे।
वर्षों गुज़र गए। अब मित्रता की प्रगाढ़ता का अपना ही आलम है।
श्री देशराज शर्मा जी ' अब्र ' सीमाबी के नाम से शायरी करते थे। उर्दू में लिखी उनकी रचनाओं को कमलेश शर्मा ने देवनागरी में लिप्यान्तरण कराकर ' हदीसे - नातमाम ' पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है। हिन्दी-उर्दू के विद्वान डॉ राणा गन्नौरी ने इसका देवनगरी में विद्वतापूर्वक लिप्यान्तरण किया है।
...जारी

Tuesday 6 October, 2009

बालिकाएँ जन्म लेती रहेंगी / अशोक लव ( भ्रूण हत्या के विरूद्ध कविता )

माँ !
आई थी मैं तुम्हारी कोख में
समेटे हृदय में स्वप्न , इच्छाएँ
देखने की लिए कामनाएँ
तुम्हारे संसार को ।

तुम्हारी साँसों के संग जुडी थीं
मेरी साँसें
तुम्हारी देह के संग जुडी थी
मेरी देह
पल रही थी मैं
बढ़ रही थी मैं
तुम्हारी कोख में धीरे-धीरे ।
सहलाती थी जब तुम
अपने ममता भरे हाथों से
छू लेना चाहती थी आकुल होकर
तुम्हारी उंगलियाँ।

माँ !
तुमने अपनी कोख में रखा मुझे
और निभाए उत्तरदायित्व घर के ,
कार्यालय के
कितना कठिन होता है गर्भावस्था में
कार्य करना ।

कोख से बहार आकर
आजीवन करूँगी तुम्हारी सेवा
तुमने जन्म देकर
मुझ पर चढ़ाया था जो ऋण
उसे उतरने का करूँगी प्रयास।

माँ !
तुमने नहीं लेने दिया जन्म मुझे
और कर डाला अपावन माँ शब्द को
तुम्हारे संसार में है नारी की हत्यारिन
नारी ही
करती है प्रताड़ित नारी को
नारी ही
भुला देती है नारीत्व , ममत्व
यद्यपि वह स्वयं होती है
किसी की पुत्री
किसी की माँ ।
माँ ! क्यों लगती हैं पहाड़ के बोझ - सी
पुत्रियाँ ?
क्यों जला दी जाती हैं
दुल्हनें ?
क्यों कर दिया जता है तार- तार
उनका झिलमिलाता स्वप्निल संसार ?
प्रताड़ित पुत्रियाँ
लौट आती हैं उस आँगन में
जहाँ से हुई थीं विदा धूमधाम से
संग लाती हैं उदासियाँ , पीड़ाएँ , टूटन , बिखराव
भिगो देती हैं अश्रुओं से
माता-पिता के कमज़ोर कंधे ।

माँ !
सामाजिक परम्पराओं के भयावह रूप को देखकर
कांपा होगा तुम्हारा हृदय
न जलाई जाऊं और न की जाऊं प्रताड़ित
न बनूँ कामी पुरुषों की कामांधता की शिकार
न कर सके कोई बलात्कारी मेरी हत्या
शायद इसीलिये तुमने ही कर डाली
मेरी हत्या !

माँ !
कैसा था मेरा भाग्य
नहीं जलाया मुझे किसी ने
न हुई शिकार किसी कामी की वासना की
कर डाली तुमने ही मेरी ह्त्या !

माँ !
कैसे जुटाया होगा साहस ?
कैसे विजयी हुई होगी ममता पर क्रूरता ?
क्या क्षण भर के लिए भी नहीं कांपा होगा
तुम्हारा हृदय ?

माँ !
क्या पता बनती तुम्हारी पुत्री वीरांगना -- झाँसी की रानी - सी
क्या पता उड़ जाती करने स्पर्श
अन्तरिक्ष की हवाओं का ,
क्या पता कंप्यूटर पर चलकर उसकी उंगलियाँ
कर डालती विश्व को चमत्कृत ,
क्या पता उसके भावुक हृदय से
सर्जित हो जाता महाकाव्य ,
क्या पता उठ खड़ी होती वह कुरीतियों के विरुद्ध
और बदल डालती सामाजिक परिदृश्य !

माँ !
तुमने तो क्षण भर में ही मिटा डाला
मेरा अस्तित्व
मैं न देख सकी सूर्योदय की लालिमा
मैं न देख सकी सूर्यास्त की थकी किरणें
न भीग सकी चाँदनी में
न छू सकी ओस-मुक्ताओं से झिलमिलाती पंखुडियाँ
न सुन सकी परियों की कहानियाँ
न करा सकी गुड्डे-गुड़िया का विवाह ।

माँ !
मैं आती तो संग लाती परी-लोक, किलकारियां
छुपन-छुपाई , तुतलाते बोल
बहती तुम्हारे आँगन में में खुशियों के कल-कल झरने
तुमने देखने नहीं दिया
अपनी गुड़िया-सी पलकें झपकती
मंद-मंद मुस्काती बेटी को
कोख से बाहर का संसार
केवल इसलिए की वह बालिका थी , बालक नहीं !

माँ !
तुम स्वयं को भूल गई
तुम भी बालिका थी
पर नहीं की थी
तुम्हारी माँ ने
तुम्हारी हत्या ,
दिया था तुम्हें जन्म
दिया था तुम्हें जिंदा रहने का ,
जीने का अधिकार ।

माँ !
मैं लूंगी जन्म अवश्य
आऊँगी इस धरती पर बालिका के रूप में ,
बालिकाएँ लेती रहेंगी जन्म
बार-बार मरे जाने के बावजूद
क्योंकि
बालिकाएँ होती हैं तपती हवाओं में बारिश की ठंडक
उनकी हँसी से झंकृत हो जाती हैं संगीत लहरियाँ
तितलियों - सी उछलती - कूदती बालिकाएँ
बिखेर देती हैं परिवेश में रंगों की छटाएँ।

माँ !
नहीं होगी बालिकाएँ तो नहीं बजेंगे
रुनझुन-रुनझुन घुँघरू ,
न स्पंदित होगी धरती ,
न झूमेगा आकाश
इसलिए मैं अवश्य जन्म लूँगी
किसी न किसी की कोख से !
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चित्र : अशोक लव
@सर्वाधिकार सुरक्षित
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