Tuesday 29 June, 2010

तुमने कुछ नहीं कहा / अशोक लव

तुम्हारे चले जाने से पूर्व
तुमसे कितनी-कितनी बातें करनी थीं
कितना कुछ जानना था ।

हमारे मध्य विवशता विद्यमान थी
तुम बोलने में असमर्थ थी
और मैं
वर्षों संग जिए क्षणों को जी लेना चाहता था
मृत्यु तुम्हारे सिरहाने मंडरा रही थी
मैं तुम्हें बताना चाहता था
पर बताने की सामर्थ्य कहाँ थी !
बता भी देता तो क्या होता !
विदा के क्षण और पीड़ामय हो जाते।

झूठे आश्वासनों को तुम सुनती थी
और मैं प्रतिदिन आश्वासन देता चला जाता था।
तुम्हारे सिर पर हाथ फेरते हुए
तुम्हारे अश्रु-कणों को पोंछते हुए
देखता था -
तुम्हारी आँखों में
फिर से मेरे साथ जीने की ललक के स्वप्न,
मेरे हाथों पर अभी भी है
तुम्हारे हाथों के कसाव की गर्माहट
पर विवशता थी
तुम्हें अकेले छोड़ने की
अस्पताल के अपरिचित डाक्टरों - नर्सों के पास।

कितने-कितने वर्षों के चित्र
आँखों के समक्ष तैरते
बेंच पर अकेले बैठे
अश्रुकणों के अविरल प्रवाहों के संग
तुम तैरती रहती मेरी स्मृतियों में।

एक-एक दिन आता
मैं हर पल मरता जाता
और जिस क्षण तुमने अंतिम श्वास लिए
और तुम्हारे हाथ का कसाव ढीला पड़ गया
तुम्हारे संग ही
मेरा संसार भी मर गया।

बस यही कसक लिए जीने की विवशता है
तुमने जाने से पूर्व कुछ नहीं कहा
कहती भी कैसे -
मुख पर लगी ट्यूब्स ने
तुम्हें बोलने ही नहीं दिया।
किसी के बिना कैसे जीवित रहा जा सकता है
किसी पुस्तक में नहीं लिखा है
तुम बोल सकती तो बता जाती।
०००००००००००००००००००००००००००००

कुछ क्षण स्वयं कविता का रूप ले लेते हैं। यह कविता ऐसे ही क्षणों से जन्मी है। जब मर्मान्तक पीड़ा गहन हो जाती है तब ऐसी कविताएँ जन्म लेती हैं। यह किसी विशेष संदर्भ में नहीं लिखी गई है। फिर भी प्रत्येक मनुष्य
के जीवन में कई ऐसे क्षण आते हैं...
--अशोक लव








Monday 21 June, 2010

हमारे गोत्र ऋषि





'मोहयाल आश्रम हरिद्वार' के ध्यान-कक्ष (Meditation-Hall) को मंदिर का रूप दिया गया है। इसमें शिव-पार्वती-गणेश जी और हनुमान जी की मूर्तियों की स्थापना के साथ-साथ इन ऋषियों की लगभग छः फुट की भव्य प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं -महा ऋषि वशिष्ठ , पराशर, भृगु , भरद्वाज, कश्यप, कौशल और धन्वन्तरी। 19 -20 जून को विधिवत पूजा-पद्धति - हवन के साथ इन मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा की गई।
इस अवसर के लिए विशेष रूप से पुस्तिका ' मोहयाल गोत्र ऋषि ' का प्रकाशन किया गया। इसमें मोहयाल ब्राह्मणों के सातों गोत्र ऋषियों का परिचय दिया गया है। इन ऋषियों के सम्बन्ध में गत तीन महीनों से गंभीरतापूर्वक कार्य करते हुए सुखद अनुभूति हुई। उन ऋषियों के ज्ञान और विद्वता के समक्ष नतमस्तक हुए बिना नहीं रहा गया। इस पुस्तिका में उनके संक्षिप्त परिचय हैं। इन पर पुस्तक भी शीघ्र ही प्रकाशित कराने की योजना है।

Thursday 17 June, 2010

बस - स्टॉप पर द्रौपदी / अशोक लव *

बस - स्टॉप पर खड़ी थी
अधेड़ औरत।

एक के बाद एक बसें आतीं भीड़ भरीं
वह चढ़ नहीं पाती
बस के दरवाज़े से उलटे पाँव लौट आती
कंधे से लटकता झोला संभालती।
' इस बार आई बस में वह ज़रूर चढ़ेगी '
उसने निर्णय कर लिया ,
दरवाज़े तक लटकी भीड़ में डाल दिया उसने हाथ
हैंडल हाथ में नहीं आया
ड्राईवर ने चला दी बस
गिर गई औरत
छिल गई कुहनियाँ
झोले से दूर जा गिरा
टिफ़िन-बॉक्स ।

झटका लगते ही खुल गया
टिफ़िन-बॉक्स
सड़क पर जा गिरीं -
दो सूखी चपातियाँ
एक फांक अचार ,
झट से उठा लीं चपातियाँ
झट से उठा लिया अचार
पोंछकर करने लगी बंद उन्हें
टिफ़िन-बॉक्स में ।


भरे बस-स्टॉप पर
अधेड़ औरत
द्रौपदी बनी खड़ी थी ।
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*पुस्तक- लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान ( वर्ष-2008)

[ किसी ने इस कविता के शीर्षक और कुछ पंक्तियों में परिवर्तन करके इसे अपने नाम से फेसबुक /ऑरकुट में लगाया हुआ हैइस ओर मेरा ध्यान कुछ साहित्यकार मित्रों ने दिलाया हैइसलिए इसे प्रकाशित करना आवश्यक हो गया है।]
Ashok sir ji, ki yah rachna sanketon main aam jan jeevan ki sachchi bangi pesh karti hai, Rachna ka mukhya patra yani bus stap par kahdi adhed stree, vastav main Bhartiya samaj ke us varg ka pratinidhittav kar rahi hai jo sahi arthon main aam insan hone ki trasdi ke sath jeeta hai, Rotian, or Aachar un vastaoun or mulyon ke prateek hain, jinke sath aaye din samjhoute karne padate hain, lekin ye mulya, or manyatan aam aadami ke jeevan se is tarah jude hue hain, aam aadmi ko unke sath hi jeean hota hai, naitik or anaitik jaisa koi bhi prshan aisi sthithi main apna astitav kho deta hai,
sach kahun di to Ashok sir ji ne in chand panktion main samaj or insan ke us chehre ko samne rakh diya hai jo amuman har roz samne aakar bhi chhupa hua hota hai-"
orkut ke 'srijan ka sahyog' se udhrit.

Friday 11 June, 2010

कविता सूरज है

जिन्हें कविता से डर लगता है
वे कविता की बात नहीं करते
वे राजनीति के किस्सों की चासनी में
उंगलियाँ डुबोकर उन्हें चाटते हैं।

वे उनकी बातें करते हैं
जिनका न धर्म है , न ईमान
जो कुर्सियों को खाते हैं
कुर्सियों को पीते हैं
कुर्सियों में मर जाते हैं
कुर्सियों में दफ़न हो जाते हैं।

कविता न चासनी है , न कुर्सी
कविता सीधी - सच्ची बात कहती है
वह दिन को दिन
और रात को रात कहती
वह भूख को भूख
और मदिरा को मदिरा कहती है ।

उन्हें कष्ट है
कि कविता सच को सच
क्यों कहती है ,
उनकी कोशिश है कि
कोई भी कविता की बात न करे।

कुछ सिरफिरे हैं कि
फिर भी कविता लिखते हैं,
कविता जीते हैं।

सूरज के आगे
अंधेरों की कितनी ही चादरें तान लें ,
कर देता है सूरज उन्हें तार-तार
अपनी रोशनी से ,
उन्हें शिकायत है कि
कविता सूरज क्यों है।
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प्रकाशित -- वोमेन ऑन टॉप ( हिन्दी मासिक पत्रिका ), A-96, SECTOR-65, NOIDA
जून2010 अंक