Wednesday 23 March, 2011

Bhagat Singh's signatures

भगत सिंह के हस्ताक्षर

भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा असेम्बली में बम फेंकने के बाद

असेंबली बमकांड मामले की एफ़आईआर
(असेंबली बमकांड मामले की एफ़आईआर का हिंदी अनुवाद)
धमाके के बाद फेंका गया पर्चा

‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’
सूचना
(आठ अप्रैल, 1929 को असेम्बली में बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा बाँटे गए अंग्रेज़ी पर्चे का हिन्दी अनुवाद)
“बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊँची आवाज़ की आवश्यकता होती है", प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलियां के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं.
पिछले दस वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने शासन-सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है उसकी कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं है और न ही हिन्दुस्तानी पार्लियामेण्ट पुकारी जाने वाली इस सभा ने भारतीय राष्ट्र के सिर पर पत्थर फेंककर उसका जो अपमान किया है, उसके उदाहरणों को याद दिलाने की आवश्यकता है. यह सब सर्वविदित और स्पष्ट है. आज फिर जब लोग “साइमन कमीशन” से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आँखें फैलाए हैं और कुछ इन टुकड़ों के लोभ में आपस में झगड़ रहे हैं, विदेशी सरकार “सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक” (पब्लिक सेफ़्टी बिल) और “औद्योगिक विवाद विधेयक”(ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यत्न कर रही हैं. इसके साथ ही आने वाले अधिवेशन में “अखबारों द्वारा राजद्रोह रोकने का क़ानून” (प्रेस सैडिशन एक्ट) लागू करने की धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करने वाले मज़दूर नेताओं की अंधाधुंध गिरफ़्तारियाँ यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैए पर चल रही है.
राष्ट्रीय दमन और अपमान की इस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में अपने उत्तरदायित्व की गंभीरता को महसूस कर “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है. इस कार्य का प्रयोजन है कि क़ानून का यह अपमानजनक प्रहसन समाप्त कर दिया जाए. विदेशी शोषक नौकरशाही जो चाहे करें परन्तु उसकी वैधानिकता का नकाब फाड़ देना आवश्यक है.
जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेण्ट के पाखंड को छोड़कर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जायें और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरुद्ध क्रांति के लिए तैयार करें. हम विदेशी सरकार को यह बता देना चाहते हैं कि हम “सार्वजनिक सुरक्षा” और “औद्योगिक विवाद” के दमनकारी कानूनों और लाला लाजपतराय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं.
हम हर मनुष्य के जीवन को पवित्र मानते हैं. हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का अवसर मिल सके. हम इन्सान का ख़ून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परन्तु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है.
इन्क़लाब जिन्दाबाद !
हस्ताक्षर–
बलराज
कमाण्डर-इन-चीफ
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हस्ताक्षर भगत  सिंह 
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Saturday 12 March, 2011

अपने लिए एक कविता /अशोक लव

चलो, एक कविता अपने लिए लिखें.

बहुत दिनों  से  अपने आप से बातचीत नहीं की
अपना हाल-चाल नहीं पूछा 
दूसरों की इच्छाएँ पूरी करते-करते 
अपना ही हाल पूछना याद नहीं रहा. 

लगता है सब ठीक ही है  
क्योंकि कुछ ख़ास नहीं है.
किसी ने हमसे हमारे विषय में नहीं पूछा 
सब व्यस्त हैं अपनी-अपनी दुनिया में मस्त हैं.

हम उनकी दुनिया में घूमते-घूमते 
अपनी ही गलियों के रास्ते भूल गए
चलें, आज अपने मन की गलियों में घूम लें. 
स्वयं से  स्वयं का हाल पूछ ले.
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@ अशोक लव









Thursday 10 March, 2011

अंधा बहरा शहर / अशोक लव

शहर में शोर है
शहर में हंगामा है
शहर में भीड़ है
शहर में जुलूस निकलते हैं
जिंदाबाद ! जिंदाबाद ! मुर्दाबाद! मुर्दाबाद ! के नारे
गूँजते हैं शहर की हवा में |
बड़ी चहल-पहल रहती है शहर में
पर हत्यारे हैं कि इन सबके बीच से
चाक़ू घुमाते
गोलियां दनदनाते निकाल जाते हैं |
लाश किसकी गिरी है
बलात्कार किसका हुआ है
शहर की भीड़ को इसका पाता नहीं चलता
वह लाशों को कुचल कर आगे बढ़ जाती है
वह बलात्कार की त्रासदी भोगती नग्न देहों को
कुचलती
आगे बढ़ जाती हैं |
लोग सब कुछ देखते हैं
पर ऑंखें बंद कर लेते हैं
लोग सब कुछ सुनते हैं
पर कान बंद कर लेते हैं
शहर के न हाथ रहे हैं न पाँव
हत्यारों-बलात्कारियों को न रोक पाता है
न पकड़ पाता है शहर |
बहुत तेज़ भाग रहा है शहर
मर चुकी संवेदनाओं के साथ जी रहा है शहर |

गर्म मोम / अशोक लव

ठंडी जमी मोम सब सह जाती है
छोटी सी
पतली-सी सुई
उतर जाती है आर-पार
बिंध जाती है मोम

तपती है जब मोम
आग बन जाती है
चिपककर झुलसा देती है

समयानुसार
जीवन को मोम बनना पड़ता है.

पत्थरों से बंधे पंख /-अशोक लव

पत्थरों से बंधे जब पंख होते हैं 
ज़ख्म हर उड़ान के संग होते हैं.
--अशोक लव


Saturday 5 March, 2011

बदलते आँगन / अशोक लव

आँगन में जनमती हैं
पलती-बढती हैं
खिलखिलाती हैं
घर-द्वार महकाती हैं |

तितलियों-सी उड़ती हैं
प्रकृति की समस्त छटाएँ छितराती हैं
कोयल-सी कुहकती हैं
घर को स्वर्ग बनाती हैं |

माँ के चरण-चिह्नों  पर
पाँव  रखती हैं
आता  गूंथना सीखती हैं
चपातियों को गोल करना सीखती हैं
सब्जियों-मसालों में सम्बंध बनाना सीखती हैं |

पिता की आय का हिसाब रखने लगती हैं
माँ की थकान का हिसाब  रखने लगती हैं
घर के उत्तरदायित्व बांटने लगती हैं |

इतना सब जब सीख जाती हैं
सहसा चिड़िया-सी उड़ जाती हैं
अपना संसार बसाती हैं |
कहाँ जनमती हैं,
कहाँ पलती हैं,
कहाँ घर बसाती हैं!
ऐसी होती हैं बेटियाँ!

अशोक लव - Kavita Kosh

अशोक लव - Kavita Kosh