Saturday, 5 March 2011

बदलते आँगन / अशोक लव

आँगन में जनमती हैं
पलती-बढती हैं
खिलखिलाती हैं
घर-द्वार महकाती हैं |

तितलियों-सी उड़ती हैं
प्रकृति की समस्त छटाएँ छितराती हैं
कोयल-सी कुहकती हैं
घर को स्वर्ग बनाती हैं |

माँ के चरण-चिह्नों  पर
पाँव  रखती हैं
आता  गूंथना सीखती हैं
चपातियों को गोल करना सीखती हैं
सब्जियों-मसालों में सम्बंध बनाना सीखती हैं |

पिता की आय का हिसाब रखने लगती हैं
माँ की थकान का हिसाब  रखने लगती हैं
घर के उत्तरदायित्व बांटने लगती हैं |

इतना सब जब सीख जाती हैं
सहसा चिड़िया-सी उड़ जाती हैं
अपना संसार बसाती हैं |
कहाँ जनमती हैं,
कहाँ पलती हैं,
कहाँ घर बसाती हैं!
ऐसी होती हैं बेटियाँ!

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