तीन सौ साठ डिग्री विश्लेष्ण करती लघुकथाओं का संग्रह: 'एकांतवास में ज़िंदगी'
लघुकथा आज लोकप्रियता की बुलंदियों को छूने का प्रयास कर रही है। उसे इस स्थान तक पहुँचाने का श्रेय जिन मनीषियों को जाता है, अशोक लव का नाम भी उनमें शामिल है। आज की लघुकथाएँ काफ़ी सीमा तक आदमी के जीवन में का प्रतिनिधित्त्व कर रही हैं। यही कारण है कि लघुकथा जीवन से सीधे जुड़ी हुई है। इसमें जीवन के किसी एक तथ्य को अपनी संपूर्ण संप्रेषणता के साथ उभारा जाता है। जिसका जितना अधिक अनुभव होगा, जितनी अधिक व्यापक दृष्टि होगी, समझ जितनी अधिक विस्तृत होगी, चिंतन-मनन जितना अधिक स्पष्ट होगा तथा शब्दार्थ और वाक्य विधान का जो मितव्ययी एवं निपुण साधक होगा वह उतनी सटीक लघुकथा रच सकता है।
आज पूरा विश्व एक भयानक महामारी की चपेट में हैं। यह महामारी प्राकृतिक है या मानव-निर्मित, इसका पता तो शायद ही कभी चल पाए। लेकिन इसके चलते उद्योग, व्यापार और रोज़गार की स्थिति बद-से-बदतर हुई। लगता है कि सब कुछ थम-सा गया है। भयंकर आर्थिक मंदी मुँह बाये खड़ी है, यह किस-किस देश की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करेगी, इसका उत्तर तो भविष्य के गर्भ में ही छुपा है। यह स्थिति हमारे देश की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए क़तई लाभकारी नहीं है।संभवत: द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इस महामारी में सब से अधिक लोगों ने अपनी जान गँवाई है। विद्वानों के मतानुसार हर काल का साहित्य उस युग की सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक वैधानिक और आर्थिक स्थितियों-परिस्थितियों से निर्लिप्त नहीं रहा है। साहित्य ने युग का प्रतिनिधित्त्व किया है या उसे प्रतिबिंबित, काल-संसर्ग सदैव अपेक्षित प्रभावी रहे हैं- किसी भी विधा के स्वरूप निर्धारण, अपितु यहाँ तक कि उसके अस्तित्त्वनिरूपण में भी युग की महती भूमिका रही है।
वस्तुत: किसी विषय विशेष पर एक पूरा एकल संग्रह तैयार करना जहाँ चुनौतीपूर्ण है वही एक जोखिमभरा कार्य भी है। क्योंकि विविधता का अभाव प्राय: एकरसता और ऊब पैदा कर देता है। किंतु 'एकांतवास में ज़िंदगी' के साथ बिल्कुल नहीं है। इसकी साठ लघुकथाएँ कम-से-कम पचास अलग-अलग विषयों पर आधारित हैं। विषय भी ऐसे जो घर में क़ैद आमजन की व्यथा से लेकर अंतरराष्ट्रीय चिंतन तक को अपने अंदर समोए हुए हैं। इस संग्रह की रचनाओं से गुज़रते हुए मैंने पाया कि अशोक लव सरीखा समर्थ व अनुभवी रचनाकार ही किसी समस्या का तीन सौ साथ डिग्री विश्लेषण करके ही किसी एकल विषय पर भी अद्वितीय प्रस्तुति दे सकता है।
अशोक लव स्वयं एक प्रखर भाषाविद हैं जो हिंदी व्याकरण पर अनेक ग्रंथ रच चुके हैं। एक सामान्य पाठक लघुकथा के लघु आकार के कारण लघुकथा की ओर आकर्षित होता है, किंतु मेरा मानना है कि लघु अकार के अलावा जो बात पाठकों को अपनी ओर खींचती है, वह है- लघुकथा की आम-फहम भाषा। स्व० जगदीश कश्यप ने कहा था कि अच्छा लेखक वही है जिसे क्लिष्ट शब्दों से परिचय हो परंतु सरल शब्दों में अभिव्यक्ति दे। भाषा-प्रयोग के बारे में प्रेमचंद की लोकप्रियता सर्वविदित है जबकि जयशंकर प्रसाद इसी शुद्ध भाषा प्रयोग के कारण कहानी में उतने सफल नहीं हो सके जितने कि प्रेमचंद। प्रेमचंद ने आम आदमी की भाषा को प्रतिष्ठित किया। ठीक यही बात लघुकथा में लानी चाहिए। आप देखेंगे कि अशोक लव की भाषा एकदम सरल, आमफ़हम, आडम्बरहीन एवं बोलचाल की है, जो आम आदमी को स्वीकार्य हैं। सोद्देश्यता इनकी लघुकथाओं की विशेषता है, साथ ही इसमें शिल्पगत, कथ्यगत, विचारगत, शाब्दिक, भाषिक एवं संवेदनात्मक-गंभीरता, गहनता, तीक्ष्णता, शब्द मितव्ययिता, कलात्मकता कूट-कूटकर भरी हुई है। यही कारण है कि इनकी लघुकथाएँ अत्यंत कम शब्दों में ही अन्तःकरण को झकझोरकर उन्हें मानवीय तथ्यों के प्रति सोचने को बाध्य कर देती हैं। इनकी लघुकथाएँ लघुकथा के मानदंड का पालन करती हैं। इन लघुकथाओं में लघुकथा की प्रत्येक हर कसौटी लघुता, तीक्ष्णता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, कलात्मकता, गहनता और व्यंजना आदि का भली-भाँति निर्वाह किया है, जिसका कथ्य अत्यंत आधुनिक एवं यथार्थपूर्ण है। भाव और शिल्प प्रभावोत्पादक है।
यूँ तो इस संग्रह में एक से बढ़कर एक लघुकथाएँ संग्रहीत हैं; किंतु यहाँ केवल उन लघुकथाओं का उल्लेख करना ही समीचीन होगा जिनका क़द बाकियों से बुलंद है। ‘बड़- बड़ दादी’ कोरोना के चलते लोगों के बदलते हुए स्वभाव की बहुत ही प्यारी-सी बानगी जिसमें हर समय बड-बड करने वाली बूढ़ी दादी अपना कठोर स्वभाव त्यागकर हनुमान चालीसा पढ़ने लगती है। ‘मेरे शहर के बच्चे’ एक अन्य उत्कृष्ट लघुकथा है। जो कोरोना के चलते उद्दंड बच्चों के स्वभाव बदलने और परिवार के एकजुट होने की कथा है। इसी प्रकार ‘आशाएँ’ में लॉकडाउन के चलते समाचारों में मौत की ख़बरें सुन-सुनकर रीतिका के पति सुधीर के ठहाके बंद हो जाते हैं। उपर्युक्त तीनों लघुकथाएँ यथार्थ का सटीक और अर्थगर्भित चित्रण हैं। ‘स्वप्नों पर ग्रहण’ एक भावपूर्ण और मार्मिक लघुकथा है जिसमें कोरोना भयग्रस्त दंपती एक की मृत्यु की सूरत में दूसरे को शादी करने की सलाह देते। ऐसी परिस्थिति किसी का भी दिल चीरने में सक्षम हैं। इसी तरह की एक और लघुकथा ‘स्व-आहुति’ कोरोना महासंकट ने किस तरह आम जनमानस की सोच को प्रभित किया कैसे उनमें असुरक्षा की भावना पैदा की, इसका साक्षात्कार इस रचना में होता है। इस रचना की नायिका रश्मि अपने पति को बाज़ार जाने से रोकती है, और स्वयं सब्ज़ी लेने चलती जाती है। दिमाग़ में यही चल रहा है कि ‘अगर उनको कुछ हो गया तो? यह मानवीय संबंधों की ऊँचाई की पराकाष्ठ नहीं तो और क्या है? कुछ ऐसा ही ‘उपचार’ में देखने को मिलता है जिसमें कोरोना पर इलाज के ख़र्चे की बात सुनकर पति-पत्नी अपनी पति को हिदायत देता है कि यदि वह कोरोनाग्रस्त हो जाए तो उसका इतना महँगा उपचार मत करवाना और वही पैसा भविष्य के लिए अपने लिए रख लेना। ‘और क्या जीना’ में वृद्धों की संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। इस लघुकथा में एक वृद्ध पत्नी एक युवा को संक्रमण से सुरक्षित रखने के लिए अपने पति को बाज़ार भेजने का निर्णय लेती है। इस संग्रह की एक सार्थक लघुकथा है ‘और अलमारी खुली’- लॉकडाउन के चलते अवसाद से बाहर निकालने में पुस्तकें किस प्रकार सहायक हो सकती है, इस लघुकथा में यह संदेश दिया गया है।
हर रचनाकार का कर्तव्य है कि वह अपने अपनी संस्कृति पर गर्व करें और अपने समाज के मूल्यों को अक्षुण रखने का प्रयास करें। अशोक लव को भी अपनी संस्कृति पर गर्व है। जिसकी बानगी उनकी बहुत-सी लघुकथाओं में देखने को मिलेगी। लेकिन यहाँ दो-तीन अति-महत्त्पूर्ण लघुकथाओं का उल्लेख करना ही समीचीन होगा। पहली लघुकथा है ‘संकटमोचन’ इसमें एक महिला की मौत पर उसके सगे संबंधियों ने भी आने समाना कर दिया। लेकिन पड़ोसियों ने पड़ोसी-धर्म क पालन करते हुए उसे सहारा दिया और उसके अंतिम संस्कार में मदद की। यह लघुकथा यथार्थ का सफल चित्रण है। इसके विपरीत ‘कूड़ा बन जाना’ एक तथाकथित विकसित देश की कहानी है जहाँ घरों के आगे ताबूत पड़े हैं, उनको लेने वाला कोई नहीं। परिवारजनों का अपने परिजनों की मृत देहों को लेने से इनकार करना और नगरपालिका द्वारा लावारिसों की तरह उनका अंतिम संस्कार करना दो सभ्यताओं का तुलनात्मक विश्लेषण है। इसी की अगली कड़ी है, ‘न लकड़ी न अग्नि’। यह लघुकथा एक तीर से कई-कई निशाने लगाने में सफल हुई है। इस लघुकथा में अंतिम संस्कार के भारी ख़र्चा के बारे में जानकर लोगों द्वारा अपने मृत परिवारजनों का अंतिम संस्कार नदी किनारे रेत में दबाकर करने की बात हुई है। हम यह भी पढ़ सुन चुके हैं कि सैकड़ों लोग अपने परिजनों की लाशें नदी में बहाने पर भी विवश हुए जोकि स्वाभाविक है कि बेहद दुखद है, किंतु ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी विकसित पश्चिमी राष्ट्रों की तरह अपने परिजनों को लावारिस नहीं छोड़ा।
भारतीय संस्कृति में दया और दान का बहुत महत्त्व है। ‘मात्र रूपा’ इसी विचारधारा का प्रतिनिधित्त्व करती है। जहाँ लॉकडाउन के चलते बंगाल से आए और नॉएडा में फँसे एक परिवार दयाभाव दिखाए हुए एक घर में आश्रय दे-दिया जाता है। इसका दूसरा उदाहरण है ‘भगवान् सुनते हैं’, यह सैकड़ों मील दूर पैदल अपने गाँव लौट रहे थके-हारे और भूखे-प्यासे प्रवासी श्रमिकों की गाथा है। लेकिन कुछ सिख लोग फ़रिश्ते बनकर वहाँ पहुँचते हैं और उन्हें खाना (लंगर) देते हैं। ‘श्रद्धा’ में लॉकडाउन के कारण भुखमरी की कगार तक पहुँचे एक कर्मकांडी पंडित को धनवंती अपने ससुर की बरसी के बहाने भोजन पहुँचाती है। दयाभाव के इससे बड़े उदाहरण और क्या हो सकते हैं?
कोरोना विषय पर अनेक रचनाएँ मेरी दृष्टि से गुज़री हैं, किंतु वे डॉक्टरों की लापरवाही अथवा भ्रष्टाचार से आगे नहीं जा पाईं और कोई प्रभाव छोड़ने में असफल रहीं। किंतु अशोक लव ने इन कोरोना योद्धाओं का वह पक्ष उजागर किया है, किसे उजागर करना वांछित भी था और अनिवार्य भी। पहली लघुकथा है ‘पश्चाताप’, इसमें कोरोना योद्धा डॉक्टरों पर हुए हमले की कहानी है। जिसमें दिन-रात रोगियों का उपचार कर रहे लोगों की डॉक्टरों के प्रति असंवेदनशीलता को शब्दांकित किया गया है। कोरोना संक्रमितों की सहायता करने गए चिकित्सा दल पर कुछ सिरफिरे हमला कर देते है जिससे डॉ अवधेश घायल हो जाते हैं। हालाँकि हमला करने वाला युवक अंत में उस डॉक्टर से क्षमा भी माँग ल्रता है। ऐसी ही असंवेदनशीलता ‘निर्लज्ज’ में भी रेखांकित की गई है। इसमें रिहायशी सोसाइटी के लोग एक डॉक्टर दंपती पर ही सवाल उठा देते हैं कि क्योंकि वे हर समय कोरोना संक्रमितों के बीच रहते हैं इसलिए सोसाइटी को उनसे ख़तरा है। लेकिन इस लघुकथा का जुझारू डॉक्टर मल्होत्रा उनसे प्रतिप्रश्न करते हुए पूछता है कि हम डॉक्टर लोग तो दिन-रात लोगों की ज़िंदगियाँ बचने में लगे हुए हैं, पर हम पर उँगलियाँ उठाने वाले क्या कर रहे हैं? ‘जीवन स्पंदन’ भी एक बहुत ही भावपूर्ण लघुकथा है। इस में जीवन की आशा गँवा चुके रोगी में अचानक आए जीवन स्पंदन का बहुत ही सारगर्भित चित्रांकन किया गया है। इसमें न केवल रोगी के परिजन ही राहत की साँस लेते हैं बल्कि स्वयं डॉक्टर भी भी सतही भी वही होती है। यह रचना न केवल डॉक्टरों के बल्कि स्वयं लेखक के संवेदनशील व्यक्तित्त्व को भी उजागर करती है। ऐसा नहीं कि लेखक ने चिकित्सा क्षेत्र के नकारात्मक पक्ष पर क़लम न चलाई हो। ‘दो ईमानदार’ कोरोनाकाल में दवाइयों की ब्लैक मार्केटिंग करने वालों की ख़ूब ख़बर ली गई है। लेकिन यहाँ भी डॉक्टरों को भ्रष्टाचार में लिप्त न दिखाकर अशोक लव ने अपने नैतिक कर्तव्य का निर्वाह किया है।
मेरा मानना है कि अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का सफ़र जितना लंबा होगा, रचना उतनी ही परिपक्व व प्रभावोत्पादक होगी। क्योंकि किसी कृति को कलाकृति में परिवर्तित करने हेतु यह लंबा सफ़र अनिवार्य है। इसी अलोक में अब मैं बात करना चाहूँगा उन दो लघुकथाओं की जो अपनी बनावट बुनावट और कथानक के विलक्षण ट्रीटमेंट के कारण दीर्घजीवी सिद्ध होंगी। इन श्रेणी में सबसे पहले आती है ‘चलें गाँव’ यह लीक से हटकर एक बेहतरीन लघुकथा है। लॉकडाउन के करण बेकार हो चुके मज़दूर कुणाल के पास अपने गाँव लौट जाने के अलावा और कोई चारा नहीं। अब यहीं से उसके मन में द्वंद्व शुरू हो जाता है कि यदि तो वह कोरोना पीड़ित होकर शहर में ही मर गया तो उसकी लाश का क्या होगा। इससे बेहतर होगा कि वह अपने गाँव जाकर ही मरे। लेकिन फिर उसे अपने घर की ख़राब आर्थिक स्थिति का भी ध्यान आता है। वह जाने के लिए बस में बैठ जाता है। किंतु वह नहीं चाहता कि वह अपने घर वालों पर अतिरिक्त बोझ डाले क्योंकि शहर में कम-से-कम उसे एक समय का भोजन तो सरकार की ओर से उपलब्ध करवाया जा रहा है। किंतु इन सभी बातों के अलावा जो बात इस लघुकथा में अनकही है, वह है कुणाल का जुझारूपन और जीवत। अत: वह इस ऊहापोह को झटकर संघर्ष के इरादे से बस से उतर जाता है। क्योंकि वह घर वालों पर बोझ नहीं बनना चाहता है। वस्तुत: कुणाल ‘सलाम दिल्ली’ का नायक अशरफ़ ही है। केवल परिदृश्य बदला है, न तो परिस्थितियाँ ही बदली हैं और न ही कुणाल उर्फ़ अशरफ़ का संघर्ष और उनके अंदर का जुझारूपन। ऐसी लघुकथा को सौ-सौ सलाम!
‘असहाय न्यायालय’ को इस संग्रह का 'हासिल' कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी। जिसकी हर पंक्ति सौ-सौ प्रश्नचिह्न खड़े करती है। इस लघुकथा की नायिका जो एक अधिवक्ता है, अपने भाई को अस्पताल में बेड न मिलने के कारण बहुत व्यथित है। उसे विश्वास था कि न्याय-व्यवस्था उसके भाई को बेड और ऑक्सीजन अवश्य उपलब्ध करवा देगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और दुर्भाग्य से उसके भाई की मृत्यु हो गई। वह निराशा में इसे अपनी पराजय मानती है। लेकिन माननीय न्यायाधीश कहते हैं कि- तुम नहीं हारी, हम हारें हैं, हमारा देश हारा है और व्यवस्थ हारी है। कोरोनाकाल में जो कुछ भी हुआ, यह पंक्ति सब कुछ बयान कर देती है। मुझे लगता है कि इस लघुकथा पर आधारित एक सफल टेलीफिल्म बन सकती है।
हिंदी-लघुकथा में सार्वभौमिकता का अभाव इस विधा की एक कमज़ोर कड़ी है। इसका एक कारण है लघुकथाकारों का अप-टू-डेट न होना और दूसरा अपने खोल से बाहर न निकलना। आचार्य जानकीवल्लभ शात्री ने कहा था कि आज के लघुकथाकारों क्या सभी साहित्यकारों को सबसे पहले अप-टू-डेट होना चाहिए। आज विश्व स्तर पर कितनी उथल-पथल मची हुई है। उस स्तर पर देखना चाहिए कि वहाँ के साहित्यकार कितने जागरूक या उत्तेजक, आग उगलते या बर्फ़ीले शब्दों में वाणी दे रहे हैं या उन बातों को लोगों के सामने प्रकट कर रहे हैं। यह देखना-पढ़ना चाहिए। दुनिया हर रोज़ बदल रही है। कल के मित्र राष्ट्र आज शत्रु बन रहे हैं और शत्रु राष्ट्र मित्र। और मज़े की बात यह है कि बाहर से शत्रु दिखने वाले राष्ट्र अपने-अपने स्वार्थ और लाभ के लिए ये आपस में हाथ मिलाने से भी गुरेज़ नहीं करते और अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों में भागीदार बनते हैं। केवल एक सचेत और अप-टू-डेट रचनाकार ही इन बातों की तह तक पहुँच सकता है। इस संदर्भ में 'चीनी फोबिया' एक अति-उत्तम लघुकथा है। यह रचना अमेरिका में रहने वाली अनुभूति और उसकी माँ के मध्य हुई फोन वार्ता पर आधारित है। यह रचना कोरोना फैलाने के चीनी षड्यंत्र से पर्दा उठाती है। अनुभूति की माँ को पूरा विश्वास है कि चीन अपने यहाँ हुई मौतों का सही आँकड़ा नहीं बता रहा। विश्व का निष्पक्ष मीडिया बता रहा है कि कोरोना वायरस चीन की वुहान प्रयोगशाला से निकला, यह बात भले ही अफ़वाह मान ली जाए लेकिन धुआँ कभी भी बे वजह नहीं उठता। वैसे इस चीनी षड्यंत्र को आज तक झुठलाया भी तो नहीं गया है। भारतवर्ष चीन के विरुद्ध कुछ भी करने में सक्षम नहीं, कम्युनिस्ट रूस भला चीन के विरुद्ध क्यों बोलेगा? अब ले देकर दुनिया को आशा है कि अमरीका इस मामले में कुछ-न-कुछ अवश्य करेगा। लेकिन पूरा विश्व जानता है कि वुहान लैब को अमरीकी फंडिंग थी। फिर भी अनुभूति की माँ को विश्वास है कि अमेरिका कुछ ज़रूर करेगा और यह बात उसको सुकून देती है। फोन पर अदिति का अपनी माँ को टोकते हुए कहना कि ऐसी बातें फोन पर नहीं किया करते, किस ओर इशारा कर रहा है? क्या अमेरिका को भी अपना पर्दाफ़ाश होने का डर सता रहा है? मुझे लगता है कि ऐसी सार्वभौमिक लघुकथाओं की आज बहुत आवश्यकता है।
इस संग्रह की मेरी पसंदीदा एक अन्य सार्वभौमिक लघुकथा है, 'देश बचना चाहिए'। यह एक बिल्कुल ही नवीन विषय को लेकर रची गई लघुकथा है जिसमें कथानक की ट्रीटमेंट देखते ही बनती है। ऐसा कथानक शायद ही हिंदी-लघुकथा में इससे पहले कभी प्रयोग किया गया हो। इस लघुकथा के केंद्र में संभवत: संयुक्त राज्य अमेरिका के उपराष्ट्रप्ति व राष्ट्रपति हैं। दोनों के मध्य देशव्यापी लॉकडाउन हटाने के विषय में विचार-विमर्श चल रहा है। विमर्श किसी की लोकतांत्रिक व्यवस्था का अभिन्न अंग होता है। उपराष्ट्रप्ति लॉकडाउन हटाने के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि इससे मौतों का आँकड़ा बढ़ने की आशंका है। जबकि राष्ट्रपति लॉकडाउन बढ़ाने के विरुद्ध हैं, उनका मत है कि इससे देश की अर्थव्यवस्था और भी चरमरा जाएगी। दोनों के तर्क अपने-अपने स्थान पर सही लगते हैं। लघुकथा अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ती है। उपराष्ट्रपति अपने राष्ट्राध्यक्ष के तर्क से सहमत हो जाते हैं और उन्हें सलाह देते हैं कि वे एक संदेश के माध्यम से लोगों को कोरोना से सुरक्षित रहने संबंधी दिशा-निर्देश दें। लोकतांत्रिक व्यवस्था की सुंदरता देखें कि राष्ट्रपति भी उपराष्ट्रपति के इस सुझाव से सहमत हो जाते हैं। अंत में राष्ट्रपति कहते हैं कि यह स्थिति किसी युद्ध से कम नहीं, यदि देश को बचने के लिए कुछ जानों का बलिदान करना भी पड़ा तो हम तैयार हैं क्योंकि हमें देश बचाना है। इस लघुकथा में भी उपराष्ट्रपति महोदय कोरोना वायरस के पीछे दुश्मन राष्ट्र के षड्यंत्र की ओर इशारा करते हैं। हमारे देश में जिस तरह बिना किसी पूर्वसूचना के लॉकडाउन लागू किया गया और बिना किसी तैयारी के हटाया गया, यह लघुकथा अप्रतयक्ष रूप से उस ओर भी इशारा करती है। कहते हैं कि एक लेखक भगवान की तरह होना चाहिए, जो अपनी रचना में मौजूद तो हो किंतु दिखाई नहीं दे। अशोक लव अपनी रचनाओं में कहते तो सब स्वयं हैं लेकिन बोलते उनके पात्र हैं। यह बात आज की पीढ़ी के लिए सीखने योग्य है। अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अशोक लव का उच्च-स्तरीय ज्ञान और पैनी दृष्टि इस लघुकथा से परिलक्षित होती है। यदि इस स्तर की लघुकथाएँ हिंदी में लिखी जाने लगें तो हमारी लघुकथा भी विश्व की अन्य लघुकथाओं के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हो जाएगी।
बलराम अग्रवाल के अनुसार लघुकथा किसी भी अर्थ में दनदनाती हुइ गोली नहीं है। यह इस प्रकार ‘सर्र’ से आपके सीने के निकट से कभी नहीं गुज़रेगी कि बदहवास से आप देखते ही रह जाएँ। पढ़ते-पढ़ते आप देखेंगे कि यह आपको झकझोर रही है। आपके ज़ेहन में कुछ बोल रही है - धीरे-धीरे आपको अहसास दिलाती है कि एक जंगल है आपके चारों ओर, और आप उसके बाहर निकल आने के लिए बेचैन हो उठते हैं। जंगल के बाहर निकल आने के समस्त निश्चयों-प्रयासों के दौरान लघुकथा आपको अपने सामने खड़ी दिखाई देती है- हर घड़ी-हर लम्हा। इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ उपर्युक्त कथन के निकष पर खरी उतरती हैं। इनकी लघुकथाएँ लघुकथा के मानदंड का पालन करती हैं। इन लघुकथाओं में लघुकथा की प्रत्येक हर कसौटी लघुता, तीक्ष्णता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, कलात्मकता, गहनता और व्यंजना आदि का भली-भाँति निर्वाह किया है, जिसका कथ्य अत्यंत आधुनिक एवं यथार्थपूर्ण है। भाव और शिल्प प्रभावोत्पादक है।
'सलाम दिल्ली' के प्रकाशन के तीन दशक पश्चात् प्रस्तुत लघुकथा संग्रह 'एकांतवास में ज़िंदगी' का प्रकाश में आना एक शुभ संकेत है। इसका कुछ श्रेय श्री अशोक लव ने हमारी पत्रिका 'लघुकथा कलश' को भी दिया है। बहरहाल, यह संग्रह हिंदी-लघुकथा को और समृद्ध करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। अत: ऐसी कृति का भरपूर स्वागत होना चाहिए।
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