Wednesday, 16 March 2022

लघुकथा जीवंत विधा है --अशोक लव


 •जीवंत व गतिशील विधा : लघुकथा  / अशोक लव

                                                                         "लघुकथा हिंदी साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है। असंख्य पाठकों और सैंकड़ों लेखकों ने इसे लोकप्रियता प्रदान की है। यह स्थिति दशकों से शनै:- शनै: विकसित हुई है।" - - अशोक लव

    लघुकथा, कथा साहित्य की अन्य विधाओं यथा कहानी और उपन्यास के समान ही एक विधा है। कहानियों और उपन्यासों के विषय असीमित और विविधता लिए होते हैं, वही स्थिति लघुकथा की है। लघुकथा के कथ्य का कोई भी विषय हो सकता है। यह लेखक पर निर्भर है कि वह किसका चयन करता है। यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि लघुकथाएँ इन विषयों पर ही लिखी जा सकती हैं।

लघुकथा नकारात्मक सोच की विधा नहीं है। सामाजिक स्थितियों, विसंगतियों, रूढ़ियों, व्यवस्थाओं, मानवीय भावनाओं, संबंधों, विचारों; धार्मिक-राजनीतिक-आर्थिक स्थितियों पर साहित्य की अन्य विधाओं में भी लिखा जाता है; उन पर कटाक्ष भी किया जाता है; लघुकथा में भी ऐसा ही किया जाता है। इसलिए लघुकथा को नकारात्मक विधा कहना उचित नहीं है। लघुकथा का सकारात्मक अकाश उतना ही व्यापक है, जितना अन्य विधाओं का है।

प्रत्येक विधा का अपना व्याकरण होता है, अपना शास्त्र होता है; अपनी संरचना के मूलभूत स्वरूप के कारण उसकी विशेषता होती है। कहानी न तो उपन्यास है और व्यंग्य कहानी नहीं है। प्रत्येक विधा की संरचना उसके शास्त्रीय तत्त्वों के आधार पर होती है। कहानी में व्यंग्य हो सकता है, लघुकथा में भी व्यंग्य हो सकता है। इस आधार पर यह व्यंग्य विधा नहीं हो जाती। दोनों स्वतंत्र विधाएँ हैं। उनका अपना विशिष्ट संरचनात्मक स्वरूप है। कहानी और लघुकथा 'कथा' परिवार की विधाएँ तो है परंतु उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। कहानी, लंबी या छोटी हो सकती है। परंतु छोटी कहानी लघुकथा नहीं बन जाती।

लघुकथा अपने आकारगत रूप के कारण लघुकथा कहलाई। इसलिए लघु होना, इसका महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इसका निर्वाह अत्यंत आवश्यक होता है। लघुकथा का स्वरूप कितना लागू होगा, यह उसके कथ्य पर निर्भर है। लघुकथा पाँच-छह वाक्यों की हो सकती है तो सौ से दो सौ वाक्यों अथवा शब्दों की भी हो सकती है। यह लघुकथाकार की क्षमता और लेखकीय कौशल पर निर्भर है कि वह उसे कितना विस्तार देना चाहता है। वस्तुत: लघुकथा, लघुकथाकार की सामर्थ्य की पर्याय । उसके लेखन कौशल की परीक्षक है। एक ही विषय पर कहानी भी लिखी जा सकती है और लघुकथा भी। परिवार में वृद्धों की स्थिति पर अनेक कहानियाँ लिखी गई हैं और लघुकथाएँ भी लिखी गई है।

समसामयिक स्थितियों पर लघुकथाएँ अधिक लिखी जाती हैं। इसका कारण है कि लघुकथा किसी घटना के सूक्ष्म बिंदु पर केंद्रित रहती है। वह सूक्ष्मतम बिंदु अनावश्यक विस्तार नहीं चाहता। सामयिक घटना तुरंत घटती है और लघुकथा उसके मूल पर केंद्रित रहती हैं। इसमें विस्तार की संभावनाएँ रहती ही नहीं है। कुशल लेखक उसी सूक्ष्मतम मूल बिंदु को लेकर लघुकथा का ताना-बाना बुनता है। वह अल्प शब्दों में अपना उद्देश्य स्पष्ट कर देता है। किसी व्यक्ति की मनोदशा का चित्रण करने के लिए कालखंड का ध्यान रखना होता है। लघुकथा उस कालखंड में व्यक्ति की मनोदशा का चित्रण करती है। विषय कोई हों, लघुकथा कथ्य के चारों और ही भ्रमण करती है। इसलिए वह विस्तार से बचती है। जहाँ अनावश्यक विस्तार हुआ लघुकथा के बिखर जाने की संभावना बढ़ जाती है। अनावश्यक विस्तार के कारण उसके कहानी बन जाने की आशंका रहती है।

लघुकथा त्वरित गति की विधा है। लघुकथा विशाल नदी का मंद-मंद बेहतर प्रवाह नहीं अपितु निर्झर के उछलते जल का तीव्र प्रवाह है। लघुकथा की यात्रा कम-से-कम शब्दों की होती है। इसी लघु आकार में लघुकथाकार बिंबों, प्रतीकों, रूपकों और अलंकारों द्वारा इसके सौंदर्य को सजाता-सँवारता है।

लघुकथा, कथा साहित्य की समर्थ विधा है। इसके लघु स्वरूप में जीवन के विविध स्वरूपों, परिदृश्यों आदि को समाहित कर लेने की क्षमता है। लघुकथा सेल्फी द्वारा खींचा फोटोग्राफ़ है. सीमित और आवश्यक वस्तुओं का चित्र! यह सागर की गहराई और आकाश के विस्तार को अपने लघु स्वरूप में समा लेती है।

मानवीय संवेदनाओं का चित्रण करने वाली रचनाएँ अधिक प्रभावशाली होती हैं, श्रेष्ठता लिए रहती हैं। लघुकथा जहाँ तीख व्यंग्यों द्वारा हृदय को बेधने की क्षमता रखती है, वहीं अपनी संवेदना सामर्थ्य के कारण हृदय के मर्म का स्पर्श करने में सक्षम होती है। सातवें-आठवें दशक के आरंभिक कालखंड की अधिकांश लघुकथाएँ व्यवस्था और विसंगतियों पर तीखे व्यंग्य करती थी; शनै:-शनै उनमें मानवीय संवेदनाओं का पक्ष प्रबल होता गया और मानवीय संबंधों की लघुकथाएँ प्रचुर मात्रा में लिखी जाने लगीं। गत दो दशकों में इन की प्रधानता हो गई है। लघुकथा की लोकप्रियता का यह भी एक कारण है।

इस विधा के प्रसार के साथ लेखकों की भीड़ जुड़ती चली गई। इनमें से अधिकांश ने इस विधा के शास्त्रीय पक्ष पर ध्यान नहीं दिया और छोटे-छोटे प्रसंगों, चुटकुलों, गप्प-गोष्ठियों के किस्सों को लघुकथा का नाम देकर छपवाना आरंभ कर दिया। वर्तमान में लघुकथा के नाम पर ऐसी रचनाओं का अंबार लग गया है। यह स्थिति चिंताजनक है। केवल प्रकाशित हो जाने के मोह से लिखने वाले लघुकथा विधा का अहित कर रहे हैं। उन्हें न अपनी छवि की चिंता है न ही विधा की।

श्रेष्ठ लघुकथाओं को बार-बार पढ़ने का मन होता है। उन्हें जितनी बार पढें, वह उतना ही अद्भुत आनंद देती हैं। यह आवश्यक नहीं है कि सैकड़ों लघुकथाएँ लिखी जाएँ, जितनी भी लिखें उनका लघुकथा होना आवश्यक होता है।

श्रेष्ठ लेखक अपनी रचनाओं का प्रथम समीक्षक होता है। वह अपनी रचना को बार-बार पढ़ता है, उसे परिमार्जित करता है। वरिष्ठ और प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने अपने अनुभवों में इसका वर्णन किया है। इसलिए सर्वप्रथम लघुकथाकारों को स्वयं ही अपनी लघुकथाओं का मूल्यांकन करना चाहिए।

लघुकथा की एक विशेषता है इसकी व्यंजना शक्ति। जिस तरह कविता में सपाटबयानी दोष मानी जाती है। उसी प्रकार 'आँखों देखा हाल' वर्णन करने वाली अभिधा शक्ति की लघुकथाओं को श्रेष्ठ नहीं समझा जाता। साहित्यकार अपने अनुभवों, अभ्यास और साधना के द्वारा श्रेष्ठ सृजन करते हैं।

लघुकथा विधा में समीक्षकों का संकट आरंभ से है । कुछ हैं जो स्वयं लघुकथाकार है, श्रेष्ठ लघुकथाकार हैं पर लघुकथा के मापदंडों से अनभिज्ञ होने के कारण मनचाही समीक्षाएँ कर रहे हैं। वरिष्ठ साहित्यकार और समालोचक डॉ० ब्रजकिशोर पाठक ने इस विषय में लिखा है—‘लघुकथा यदि साहित्य रचना विधान है तो इसमें भी ध्वन्यात्मकता होगी ही। प्रतीक, मिथक और अभिव्यक्ति की वक्रता को आम आदमी कैसे पचा सकता है? आम आदमी क्या. सहृदय समीक्षक के लिए भी कवि-साहित्यकार की संवेदना, अनुभूति और लेखक की मुद्रा को पकड़ना कठिन होता है। इसलिए समीक्षा वैयक्तिक होती है। आलोचक की वैयक्तिकता का प्रभाव पड़ने के कारण ही एक ही कृति को कई रूपों में विश्लेषित होना पड़ता है। इसलिए लघुकथा स्वातंत्रयोत्तर भारत की उपजी अनास्था और समाधानरहित समस्याओं से जुड़ी होने के बाद लोकप्रिय' नहीं हुई बल्कि इसे सहज विधा रचना मानकर रचनाधर्मियों ने भीड़ पैदा की है। इनमें अनावश्यक हंगामे में मूल्यांकन की दिशाहीनता भी देखने को मिली क्योंकि साहित्यिक रचनाधर्मिता से सीधा लगाव न होने के कारण शास्त्रविहीन लोग ही मूल्यांकनकर्ता बन गए।’ (साहित्यकार अशोक लव बहुआयामी हस्ताक्षर, पृष्ठ 18-19, वर्ष 2004)

इसी क्रम में डॉ ब्रजकिशोर पाठक का मानना है—‘...इन लोगों ने नाटक, उपन्यास और कहानी के तत्त्वों को लघुकथा पर आरोपित किया था और कथानक, चरित्र चित्रण, कथोपकथन आदि बातें लघुकथा पर आरोपित करके वस्तुतः साहित्यकारों को धर्मसंकट में डाल दिया था। यदि लघुकथा की आलोचना की जाए तो कहानी की समीक्षा हो जाएगी। लघुकथा की लकड़ी के बोटे से आरी चलाकर पटरी निकालना बेवकूफ़ी है। आलोचना को 'कथाकथ्य' (कथ्य और अकथ्य) की स्थिति में डालकर देना ही लघुकथा की सफलता है। यह 'कथाकथ्थय' (कथा और कथ्य) बहुत प्रचलित हुआ और 'कथाकथ्य' (कथा और कथ्य) के रूप में प्रयुक्त होने लगा। मेरे विचार से लघुकथा में 'कथानक' नहीं हो सकता। यहाँ एक प्रमुख स्थिति या घटना होती है। और उसी से अन्य छोटी-छोटी प्रासंगिक घटनाएँ और स्थितियाँ होती है। लघुकथा में चरित्र चित्रण नहीं होता; पात्र-योजना होती है। कथोपकथन नहीं होता संवाद होते हैं। कथानक के बदले 'घटना' लघुकथा में आकर 'कथाभास' के रूप में प्रयुक्त होती है। इस सूक्ष्म भेद के न जानने के कारण ही कुछ लघुकथाकार छोटी कहानी जैसी चीज़ लघुकथा के नाम पर लिखते रहे हैं।’ (साहित्यकार अशोक लव : बहुआयामी हस्ताक्षर, पृष्ठ 21-22, वर्ष 2004)

इसी तरह लघुकथा और कहानी में अंतर एकदम स्पष्ट हो जाता है। कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टि से कहानी का कथानक लघुकथा की घटना की अपेक्षा व्यापकता लिए रहता है। उसकी शैली लघुकथा से भिन्न होती है। उसका विकास लघुकथा की भाँति नहीं होता। लघुकथा की गति और प्रवाह भिन्न होता है। लघुकथा का आरंभ उत्सुकता लिए रहता है, विकास इसे और बढ़ाता है और उसके कथ्य को गति प्रदान करता है। चरमसीमा पर वह लघुकथा का अंत हो जाता है। यहीं लघुकथा का अभीष्ट स्पष्ट हो जाता है।

‘लघुकथा कलश’ आलेख महाविशेषांक-1 (जुलाई-दिसंबर 2020, संपादक : योगराज प्रभाकर) में प्रकाशित

Sunday, 13 March 2022

शिखरों से आगे की समीक्षा : ज्ञानप्रकाश पीयूष द्वारा


 

•कृति- शिखरों से आगे •लेखक-अशोक लव •विधा-उपन्यास

•प्रकाशक - हर्फ़ प्रकाशन, नई दिल्ली•प्रथम संस्करण-2018 ,नवीन-2019•मूल्य -200/-(पेपर बैक)पृष्ठ-206.

जीवन में शुचिता की महत्ता को प्रतिपादित करता उपन्यास 

कविता, कहानी, लघुकथा, उपन्यास, आलोचना आदि विविध विधाओं में अविराम गति से सृजनरत लब्ध प्रतिष्ठित वरिष्ठ साहित्यकार अशोक लव द्वारा रचित उपन्यास 'शिखरों से आगे' एक सामाजिक उपन्यास है।लेखक ने उपन्यास के नायक विनोद के माध्यम से शिक्षा, साहित्य ,चित्रकला और अध्यात्म के क्षेत्रों के विविध स्वरूपों को शिद्दत से चित्रांकित किया है तथा सामाजिक परिवेश में प्रचलित प्रेम के विभिन्न स्वरूपों का भी सटीक उद्घाटन किया है।

स्वामी अखिलानंद राष्ट्र को उन्नत एवं विकसित बनाने के लिए कृत-संकल्पित हैं ,उनके सपनों को मूर्त रूप देने के लिए नायक विनोद अपने जीवन को उनके चरणों में समर्पित कर देता है तथा नायिका शुभांगी विनोद को अध्यात्म के उच्च शिखरों को स्पर्श कराने में अहम भूमिका अदा करती है,तथा कृति विनोद की सहचरी के रूप में उद्देश्य सम्प्राप्ति में अत्यंत सहायक है।उपन्यास की कथावस्तु सामयिक है ,इसमें देश की अनेक ज्वलन्त समस्याओं को रेखांकित किया गया है। विशेषरूप से सामाजिक ,राजनीतिक, धार्मिक,आर्थिक और शैक्षिक मूल्यों में आई गिरावट का प्रभावशाली तरीके से विवेचन हुआ है।कतिपय झलकियां प्रस्तुत हैं -स्वामी जी बोले, "आज औद्योगिकरण के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं, उपभोगवादी- संस्कृति जन्म ले रही है। छोटे-छोटे परिवार बन गए हैं ,व्यक्ति की सोच भी उतनी ही छोटी होती जा रही है, मूल्यों के विषय में किसी को भी चिंता नहीं है ,राजनेता मूल्यों का गला घोट सत्ता प्राप्ति के सुख भोगने में लगे हैं।" पृष्ठ-61.

" आज देश के समक्ष मूल्यों का संकट है, शिक्षा में नैतिक मूल्यों का अभाव है, सामाजिक जीवन से ईमानदारी लुप्त होती जा रही है, राजनीति गुंडों, बदमाशों, लुटेरों, भ्रष्टाचारियों के हाथ की कठपुतली बन गई है। भारतीय संस्कृति को नष्ट करने का कुचक्र चल रहा है,राजनेताओं ने धर्म की विकृतिपूर्ण व्याख्या करके उसे राजनीति का मोहरा बना डाला है। इस वातावरण को परिवर्तित करना होगा।" पृष्ठ-84. " लोकतंत्रात्मक प्रणाली का सबसे बड़ा दोष है- इसमें गुंडों, बदमाशों, तस्करों आदि अपराधियों को चुनाव जीत कर विधानसभा, संसद में आने का पूर्ण अधिकार है। ऐसे राजनेता क्षुद्र-स्वार्थों के कारण देश को जलती आग में झोंकने से नहीं हिचकिचाते...

आज धर्म व्यक्ति के विचारों का परिष्कार नहीं कर रहा, धर्म स्वार्थियों के हाथ की कठपुतली बन कर विनाशकारी उन्माद उत्पन्न कर रहा है। पूजा-स्थल तेज़ाबी शब्द उगलने के कारखाने बन गए हैं।" पृष्ठ-95.

कथानायक विनोद ने स्वामीजी से कहा -"विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण और उनमें राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करने के लिए नैतिक शिक्षा अत्यंत आवश्यक है।... आज के विद्यार्थियों पर विषयों का अत्यधिक बोझ है। वर्तमान शिक्षा- प्रणाली मनुष्य को सच्चा मनुष्य नहीं बना पा रही है ।शिक्षा का उद्देश बालक का सर्वांगीण शारीरिक मानसिक व बौद्धिक विकास करना है ऐसा कहां हो पा रहा है? पूरा समाज धर्म, जाति, संप्रदाय के नाम पर टुकड़ों में बटता जा रहा है ।आत्मिक उत्थान हेतु शिक्षा में क्या प्रावधान है ? शिक्षा के प्रचार-प्रसार के पश्चात भी सांप्रदायिक दंगे और आतंकवाद और पनपा है। इसके लिए विद्यार्थियों में 'सर्वधर्म समभाव' की भावना जाग्रत  करने की आवश्यकता है।" पृष्ठ138.

इस प्रकार उपन्यास की कथावस्तु सामयिक- समस्याओं पर प्रकाश डालने वाली और उनका सम्भावित समाधान प्रस्तुत करने वाली है। इसके संवाद बड़े रोचक,कथा की गति को आगे बढ़ने वाले तथा पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाले हैं।भाषा सरल और पात्रानुकूल है।देश-काल एवं परिस्थितियों का भी सम्यक विवेचन प्रस्तुत किया गया है।

औपन्यासिक कृति का मूल प्रतिपाद्य मानव जीवन को  शुद्ध-सात्विक ,विकारों से रहित,कर्तव्य-परायण, प्रगतिशील,लोक-कल्याणकारी व अध्यात्म के शिखरों को छूने वाला बनाना है।इस प्रयोजन की प्राप्ति हेतु स्वामी जी का विनोदके प्रति कथन सर्वथा समीचीन है ,-" गृहस्थ जीवन जीने वाला व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करता  रहे। इसके संग-संग  आत्मिक उत्थान भी करता रहे। परमात्मा की ओर ध्यान लगाए ।अपने घर में रहकर ही ध्यान लगाया जा सकता है। इसी ध्यानावस्था से  सिद्धावस्था आती है ।ईश्वरीय-नैकट्य  प्राप्त होता है। व्यक्ति को शनैः शनैः अपनी पाशविक वृत्तियों का शमन करते जाना चाहिए।" पृष्ठ-61.

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि अशोक लव द्वारा रचित 'शिखरों से आगे ' उपन्यास कथावस्तु ,पात्र-चरित्र-चित्रण,संवाद,देश-काल-परिस्थिति ,भाषा-शैली, उद्देश्य, शीर्षक,और सन्देश की दृष्टि से उत्कृष्ट एवं प्रभविष्णु है। सुधी समाज में समादृत होगा,ऐसा मेरा विश्वास है।

•ज्ञनप्रकाश 'पीयूष' ,1/258 मस्जिदवाली गली,•तेलियान मौहल्ला, सिरसा-125055(हरि.)

मो.94145-37902.

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