Tuesday, 10 January 2012

कविता -अहंकारी की आत्म-प्रवंचना / अशोक लव

मैं ही मैं हूँ
बस मैं ही मैं हूँ
यहाँ भी और वहाँ भी
इधर भी और उधर भी
ऊपर भी और नीचे भी
यह भी है मेरा
और वह भी है मेरा
जिधर देखता हूँ
स्वयं को देखता हूँ
जो कुछ सोचता हूँ
स्वयं को सोचता हूँ।
मेरे सिवा और क्या है जहां में ?
यह मकां मेरा वह दुकां मेरी
यह पत्नी मेरी
वह बच्चे मेरे
यह नौकर मेरे
वह चाकर मेरे
और क्या है जहां में
सिवा मेरे
यहाँ भी मैं हूँ
और वहाँ भी मैं हूँ
मैं ही हूँ बस
मैं ही मैं हूँ।

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