Wednesday, 16 March 2022

लघुकथा जीवंत विधा है --अशोक लव


 •जीवंत व गतिशील विधा : लघुकथा  / अशोक लव

                                                                         "लघुकथा हिंदी साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है। असंख्य पाठकों और सैंकड़ों लेखकों ने इसे लोकप्रियता प्रदान की है। यह स्थिति दशकों से शनै:- शनै: विकसित हुई है।" - - अशोक लव

    लघुकथा, कथा साहित्य की अन्य विधाओं यथा कहानी और उपन्यास के समान ही एक विधा है। कहानियों और उपन्यासों के विषय असीमित और विविधता लिए होते हैं, वही स्थिति लघुकथा की है। लघुकथा के कथ्य का कोई भी विषय हो सकता है। यह लेखक पर निर्भर है कि वह किसका चयन करता है। यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि लघुकथाएँ इन विषयों पर ही लिखी जा सकती हैं।

लघुकथा नकारात्मक सोच की विधा नहीं है। सामाजिक स्थितियों, विसंगतियों, रूढ़ियों, व्यवस्थाओं, मानवीय भावनाओं, संबंधों, विचारों; धार्मिक-राजनीतिक-आर्थिक स्थितियों पर साहित्य की अन्य विधाओं में भी लिखा जाता है; उन पर कटाक्ष भी किया जाता है; लघुकथा में भी ऐसा ही किया जाता है। इसलिए लघुकथा को नकारात्मक विधा कहना उचित नहीं है। लघुकथा का सकारात्मक अकाश उतना ही व्यापक है, जितना अन्य विधाओं का है।

प्रत्येक विधा का अपना व्याकरण होता है, अपना शास्त्र होता है; अपनी संरचना के मूलभूत स्वरूप के कारण उसकी विशेषता होती है। कहानी न तो उपन्यास है और व्यंग्य कहानी नहीं है। प्रत्येक विधा की संरचना उसके शास्त्रीय तत्त्वों के आधार पर होती है। कहानी में व्यंग्य हो सकता है, लघुकथा में भी व्यंग्य हो सकता है। इस आधार पर यह व्यंग्य विधा नहीं हो जाती। दोनों स्वतंत्र विधाएँ हैं। उनका अपना विशिष्ट संरचनात्मक स्वरूप है। कहानी और लघुकथा 'कथा' परिवार की विधाएँ तो है परंतु उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। कहानी, लंबी या छोटी हो सकती है। परंतु छोटी कहानी लघुकथा नहीं बन जाती।

लघुकथा अपने आकारगत रूप के कारण लघुकथा कहलाई। इसलिए लघु होना, इसका महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इसका निर्वाह अत्यंत आवश्यक होता है। लघुकथा का स्वरूप कितना लागू होगा, यह उसके कथ्य पर निर्भर है। लघुकथा पाँच-छह वाक्यों की हो सकती है तो सौ से दो सौ वाक्यों अथवा शब्दों की भी हो सकती है। यह लघुकथाकार की क्षमता और लेखकीय कौशल पर निर्भर है कि वह उसे कितना विस्तार देना चाहता है। वस्तुत: लघुकथा, लघुकथाकार की सामर्थ्य की पर्याय । उसके लेखन कौशल की परीक्षक है। एक ही विषय पर कहानी भी लिखी जा सकती है और लघुकथा भी। परिवार में वृद्धों की स्थिति पर अनेक कहानियाँ लिखी गई हैं और लघुकथाएँ भी लिखी गई है।

समसामयिक स्थितियों पर लघुकथाएँ अधिक लिखी जाती हैं। इसका कारण है कि लघुकथा किसी घटना के सूक्ष्म बिंदु पर केंद्रित रहती है। वह सूक्ष्मतम बिंदु अनावश्यक विस्तार नहीं चाहता। सामयिक घटना तुरंत घटती है और लघुकथा उसके मूल पर केंद्रित रहती हैं। इसमें विस्तार की संभावनाएँ रहती ही नहीं है। कुशल लेखक उसी सूक्ष्मतम मूल बिंदु को लेकर लघुकथा का ताना-बाना बुनता है। वह अल्प शब्दों में अपना उद्देश्य स्पष्ट कर देता है। किसी व्यक्ति की मनोदशा का चित्रण करने के लिए कालखंड का ध्यान रखना होता है। लघुकथा उस कालखंड में व्यक्ति की मनोदशा का चित्रण करती है। विषय कोई हों, लघुकथा कथ्य के चारों और ही भ्रमण करती है। इसलिए वह विस्तार से बचती है। जहाँ अनावश्यक विस्तार हुआ लघुकथा के बिखर जाने की संभावना बढ़ जाती है। अनावश्यक विस्तार के कारण उसके कहानी बन जाने की आशंका रहती है।

लघुकथा त्वरित गति की विधा है। लघुकथा विशाल नदी का मंद-मंद बेहतर प्रवाह नहीं अपितु निर्झर के उछलते जल का तीव्र प्रवाह है। लघुकथा की यात्रा कम-से-कम शब्दों की होती है। इसी लघु आकार में लघुकथाकार बिंबों, प्रतीकों, रूपकों और अलंकारों द्वारा इसके सौंदर्य को सजाता-सँवारता है।

लघुकथा, कथा साहित्य की समर्थ विधा है। इसके लघु स्वरूप में जीवन के विविध स्वरूपों, परिदृश्यों आदि को समाहित कर लेने की क्षमता है। लघुकथा सेल्फी द्वारा खींचा फोटोग्राफ़ है. सीमित और आवश्यक वस्तुओं का चित्र! यह सागर की गहराई और आकाश के विस्तार को अपने लघु स्वरूप में समा लेती है।

मानवीय संवेदनाओं का चित्रण करने वाली रचनाएँ अधिक प्रभावशाली होती हैं, श्रेष्ठता लिए रहती हैं। लघुकथा जहाँ तीख व्यंग्यों द्वारा हृदय को बेधने की क्षमता रखती है, वहीं अपनी संवेदना सामर्थ्य के कारण हृदय के मर्म का स्पर्श करने में सक्षम होती है। सातवें-आठवें दशक के आरंभिक कालखंड की अधिकांश लघुकथाएँ व्यवस्था और विसंगतियों पर तीखे व्यंग्य करती थी; शनै:-शनै उनमें मानवीय संवेदनाओं का पक्ष प्रबल होता गया और मानवीय संबंधों की लघुकथाएँ प्रचुर मात्रा में लिखी जाने लगीं। गत दो दशकों में इन की प्रधानता हो गई है। लघुकथा की लोकप्रियता का यह भी एक कारण है।

इस विधा के प्रसार के साथ लेखकों की भीड़ जुड़ती चली गई। इनमें से अधिकांश ने इस विधा के शास्त्रीय पक्ष पर ध्यान नहीं दिया और छोटे-छोटे प्रसंगों, चुटकुलों, गप्प-गोष्ठियों के किस्सों को लघुकथा का नाम देकर छपवाना आरंभ कर दिया। वर्तमान में लघुकथा के नाम पर ऐसी रचनाओं का अंबार लग गया है। यह स्थिति चिंताजनक है। केवल प्रकाशित हो जाने के मोह से लिखने वाले लघुकथा विधा का अहित कर रहे हैं। उन्हें न अपनी छवि की चिंता है न ही विधा की।

श्रेष्ठ लघुकथाओं को बार-बार पढ़ने का मन होता है। उन्हें जितनी बार पढें, वह उतना ही अद्भुत आनंद देती हैं। यह आवश्यक नहीं है कि सैकड़ों लघुकथाएँ लिखी जाएँ, जितनी भी लिखें उनका लघुकथा होना आवश्यक होता है।

श्रेष्ठ लेखक अपनी रचनाओं का प्रथम समीक्षक होता है। वह अपनी रचना को बार-बार पढ़ता है, उसे परिमार्जित करता है। वरिष्ठ और प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने अपने अनुभवों में इसका वर्णन किया है। इसलिए सर्वप्रथम लघुकथाकारों को स्वयं ही अपनी लघुकथाओं का मूल्यांकन करना चाहिए।

लघुकथा की एक विशेषता है इसकी व्यंजना शक्ति। जिस तरह कविता में सपाटबयानी दोष मानी जाती है। उसी प्रकार 'आँखों देखा हाल' वर्णन करने वाली अभिधा शक्ति की लघुकथाओं को श्रेष्ठ नहीं समझा जाता। साहित्यकार अपने अनुभवों, अभ्यास और साधना के द्वारा श्रेष्ठ सृजन करते हैं।

लघुकथा विधा में समीक्षकों का संकट आरंभ से है । कुछ हैं जो स्वयं लघुकथाकार है, श्रेष्ठ लघुकथाकार हैं पर लघुकथा के मापदंडों से अनभिज्ञ होने के कारण मनचाही समीक्षाएँ कर रहे हैं। वरिष्ठ साहित्यकार और समालोचक डॉ० ब्रजकिशोर पाठक ने इस विषय में लिखा है—‘लघुकथा यदि साहित्य रचना विधान है तो इसमें भी ध्वन्यात्मकता होगी ही। प्रतीक, मिथक और अभिव्यक्ति की वक्रता को आम आदमी कैसे पचा सकता है? आम आदमी क्या. सहृदय समीक्षक के लिए भी कवि-साहित्यकार की संवेदना, अनुभूति और लेखक की मुद्रा को पकड़ना कठिन होता है। इसलिए समीक्षा वैयक्तिक होती है। आलोचक की वैयक्तिकता का प्रभाव पड़ने के कारण ही एक ही कृति को कई रूपों में विश्लेषित होना पड़ता है। इसलिए लघुकथा स्वातंत्रयोत्तर भारत की उपजी अनास्था और समाधानरहित समस्याओं से जुड़ी होने के बाद लोकप्रिय' नहीं हुई बल्कि इसे सहज विधा रचना मानकर रचनाधर्मियों ने भीड़ पैदा की है। इनमें अनावश्यक हंगामे में मूल्यांकन की दिशाहीनता भी देखने को मिली क्योंकि साहित्यिक रचनाधर्मिता से सीधा लगाव न होने के कारण शास्त्रविहीन लोग ही मूल्यांकनकर्ता बन गए।’ (साहित्यकार अशोक लव बहुआयामी हस्ताक्षर, पृष्ठ 18-19, वर्ष 2004)

इसी क्रम में डॉ ब्रजकिशोर पाठक का मानना है—‘...इन लोगों ने नाटक, उपन्यास और कहानी के तत्त्वों को लघुकथा पर आरोपित किया था और कथानक, चरित्र चित्रण, कथोपकथन आदि बातें लघुकथा पर आरोपित करके वस्तुतः साहित्यकारों को धर्मसंकट में डाल दिया था। यदि लघुकथा की आलोचना की जाए तो कहानी की समीक्षा हो जाएगी। लघुकथा की लकड़ी के बोटे से आरी चलाकर पटरी निकालना बेवकूफ़ी है। आलोचना को 'कथाकथ्य' (कथ्य और अकथ्य) की स्थिति में डालकर देना ही लघुकथा की सफलता है। यह 'कथाकथ्थय' (कथा और कथ्य) बहुत प्रचलित हुआ और 'कथाकथ्य' (कथा और कथ्य) के रूप में प्रयुक्त होने लगा। मेरे विचार से लघुकथा में 'कथानक' नहीं हो सकता। यहाँ एक प्रमुख स्थिति या घटना होती है। और उसी से अन्य छोटी-छोटी प्रासंगिक घटनाएँ और स्थितियाँ होती है। लघुकथा में चरित्र चित्रण नहीं होता; पात्र-योजना होती है। कथोपकथन नहीं होता संवाद होते हैं। कथानक के बदले 'घटना' लघुकथा में आकर 'कथाभास' के रूप में प्रयुक्त होती है। इस सूक्ष्म भेद के न जानने के कारण ही कुछ लघुकथाकार छोटी कहानी जैसी चीज़ लघुकथा के नाम पर लिखते रहे हैं।’ (साहित्यकार अशोक लव : बहुआयामी हस्ताक्षर, पृष्ठ 21-22, वर्ष 2004)

इसी तरह लघुकथा और कहानी में अंतर एकदम स्पष्ट हो जाता है। कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टि से कहानी का कथानक लघुकथा की घटना की अपेक्षा व्यापकता लिए रहता है। उसकी शैली लघुकथा से भिन्न होती है। उसका विकास लघुकथा की भाँति नहीं होता। लघुकथा की गति और प्रवाह भिन्न होता है। लघुकथा का आरंभ उत्सुकता लिए रहता है, विकास इसे और बढ़ाता है और उसके कथ्य को गति प्रदान करता है। चरमसीमा पर वह लघुकथा का अंत हो जाता है। यहीं लघुकथा का अभीष्ट स्पष्ट हो जाता है।

‘लघुकथा कलश’ आलेख महाविशेषांक-1 (जुलाई-दिसंबर 2020, संपादक : योगराज प्रभाकर) में प्रकाशित

Sunday, 13 March 2022

शिखरों से आगे की समीक्षा : ज्ञानप्रकाश पीयूष द्वारा


 

•कृति- शिखरों से आगे •लेखक-अशोक लव •विधा-उपन्यास

•प्रकाशक - हर्फ़ प्रकाशन, नई दिल्ली•प्रथम संस्करण-2018 ,नवीन-2019•मूल्य -200/-(पेपर बैक)पृष्ठ-206.

जीवन में शुचिता की महत्ता को प्रतिपादित करता उपन्यास 

कविता, कहानी, लघुकथा, उपन्यास, आलोचना आदि विविध विधाओं में अविराम गति से सृजनरत लब्ध प्रतिष्ठित वरिष्ठ साहित्यकार अशोक लव द्वारा रचित उपन्यास 'शिखरों से आगे' एक सामाजिक उपन्यास है।लेखक ने उपन्यास के नायक विनोद के माध्यम से शिक्षा, साहित्य ,चित्रकला और अध्यात्म के क्षेत्रों के विविध स्वरूपों को शिद्दत से चित्रांकित किया है तथा सामाजिक परिवेश में प्रचलित प्रेम के विभिन्न स्वरूपों का भी सटीक उद्घाटन किया है।

स्वामी अखिलानंद राष्ट्र को उन्नत एवं विकसित बनाने के लिए कृत-संकल्पित हैं ,उनके सपनों को मूर्त रूप देने के लिए नायक विनोद अपने जीवन को उनके चरणों में समर्पित कर देता है तथा नायिका शुभांगी विनोद को अध्यात्म के उच्च शिखरों को स्पर्श कराने में अहम भूमिका अदा करती है,तथा कृति विनोद की सहचरी के रूप में उद्देश्य सम्प्राप्ति में अत्यंत सहायक है।उपन्यास की कथावस्तु सामयिक है ,इसमें देश की अनेक ज्वलन्त समस्याओं को रेखांकित किया गया है। विशेषरूप से सामाजिक ,राजनीतिक, धार्मिक,आर्थिक और शैक्षिक मूल्यों में आई गिरावट का प्रभावशाली तरीके से विवेचन हुआ है।कतिपय झलकियां प्रस्तुत हैं -स्वामी जी बोले, "आज औद्योगिकरण के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं, उपभोगवादी- संस्कृति जन्म ले रही है। छोटे-छोटे परिवार बन गए हैं ,व्यक्ति की सोच भी उतनी ही छोटी होती जा रही है, मूल्यों के विषय में किसी को भी चिंता नहीं है ,राजनेता मूल्यों का गला घोट सत्ता प्राप्ति के सुख भोगने में लगे हैं।" पृष्ठ-61.

" आज देश के समक्ष मूल्यों का संकट है, शिक्षा में नैतिक मूल्यों का अभाव है, सामाजिक जीवन से ईमानदारी लुप्त होती जा रही है, राजनीति गुंडों, बदमाशों, लुटेरों, भ्रष्टाचारियों के हाथ की कठपुतली बन गई है। भारतीय संस्कृति को नष्ट करने का कुचक्र चल रहा है,राजनेताओं ने धर्म की विकृतिपूर्ण व्याख्या करके उसे राजनीति का मोहरा बना डाला है। इस वातावरण को परिवर्तित करना होगा।" पृष्ठ-84. " लोकतंत्रात्मक प्रणाली का सबसे बड़ा दोष है- इसमें गुंडों, बदमाशों, तस्करों आदि अपराधियों को चुनाव जीत कर विधानसभा, संसद में आने का पूर्ण अधिकार है। ऐसे राजनेता क्षुद्र-स्वार्थों के कारण देश को जलती आग में झोंकने से नहीं हिचकिचाते...

आज धर्म व्यक्ति के विचारों का परिष्कार नहीं कर रहा, धर्म स्वार्थियों के हाथ की कठपुतली बन कर विनाशकारी उन्माद उत्पन्न कर रहा है। पूजा-स्थल तेज़ाबी शब्द उगलने के कारखाने बन गए हैं।" पृष्ठ-95.

कथानायक विनोद ने स्वामीजी से कहा -"विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण और उनमें राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करने के लिए नैतिक शिक्षा अत्यंत आवश्यक है।... आज के विद्यार्थियों पर विषयों का अत्यधिक बोझ है। वर्तमान शिक्षा- प्रणाली मनुष्य को सच्चा मनुष्य नहीं बना पा रही है ।शिक्षा का उद्देश बालक का सर्वांगीण शारीरिक मानसिक व बौद्धिक विकास करना है ऐसा कहां हो पा रहा है? पूरा समाज धर्म, जाति, संप्रदाय के नाम पर टुकड़ों में बटता जा रहा है ।आत्मिक उत्थान हेतु शिक्षा में क्या प्रावधान है ? शिक्षा के प्रचार-प्रसार के पश्चात भी सांप्रदायिक दंगे और आतंकवाद और पनपा है। इसके लिए विद्यार्थियों में 'सर्वधर्म समभाव' की भावना जाग्रत  करने की आवश्यकता है।" पृष्ठ138.

इस प्रकार उपन्यास की कथावस्तु सामयिक- समस्याओं पर प्रकाश डालने वाली और उनका सम्भावित समाधान प्रस्तुत करने वाली है। इसके संवाद बड़े रोचक,कथा की गति को आगे बढ़ने वाले तथा पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाले हैं।भाषा सरल और पात्रानुकूल है।देश-काल एवं परिस्थितियों का भी सम्यक विवेचन प्रस्तुत किया गया है।

औपन्यासिक कृति का मूल प्रतिपाद्य मानव जीवन को  शुद्ध-सात्विक ,विकारों से रहित,कर्तव्य-परायण, प्रगतिशील,लोक-कल्याणकारी व अध्यात्म के शिखरों को छूने वाला बनाना है।इस प्रयोजन की प्राप्ति हेतु स्वामी जी का विनोदके प्रति कथन सर्वथा समीचीन है ,-" गृहस्थ जीवन जीने वाला व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करता  रहे। इसके संग-संग  आत्मिक उत्थान भी करता रहे। परमात्मा की ओर ध्यान लगाए ।अपने घर में रहकर ही ध्यान लगाया जा सकता है। इसी ध्यानावस्था से  सिद्धावस्था आती है ।ईश्वरीय-नैकट्य  प्राप्त होता है। व्यक्ति को शनैः शनैः अपनी पाशविक वृत्तियों का शमन करते जाना चाहिए।" पृष्ठ-61.

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि अशोक लव द्वारा रचित 'शिखरों से आगे ' उपन्यास कथावस्तु ,पात्र-चरित्र-चित्रण,संवाद,देश-काल-परिस्थिति ,भाषा-शैली, उद्देश्य, शीर्षक,और सन्देश की दृष्टि से उत्कृष्ट एवं प्रभविष्णु है। सुधी समाज में समादृत होगा,ऐसा मेरा विश्वास है।

•ज्ञनप्रकाश 'पीयूष' ,1/258 मस्जिदवाली गली,•तेलियान मौहल्ला, सिरसा-125055(हरि.)

मो.94145-37902.

ईमेल-gppeeyush@gmail.com

Saturday, 16 October 2021

"संस्कृति को सुरक्षित रखने में सांस्कृतिक समारोह महत्त्वपूर्ण होते हैं"- अशोक लव

एनस्कवैयर संस्था द्वारा आयोजित भव्य सांस्कृतिक समारोह का शुभारंभ वरिष्ठ साहित्यकार अशोक लव ने दीप प्रज्वलित करके किया। इस अवसर पर उन्होंने कहा -" इन समारोहों से हमारी संस्कृति सुरक्षित रहती है। युवा पीढ़ी को अपनी महान संस्कृति का पता चलता है और युवा इसके अंग बनते चले जाते हैं। विदेशों में रहने वाले भारतीय भी उत्साहपूर्वक ऐसे समारोह आयोजित करते रहते हैं। इस कार्यक्रम की आयोजिका सुश्री निशि प्रकाश और निधि सिन्हा को बधाई दी  जिन्होंने ऐसे सुंदर समारोह का आयोजन किया।"

मधुर गायिका और कवयित्री रमा सिन्हा ने माँ दुर्गा की स्तुति में अपना गीत प्रस्तुत किया। उन्होंने डांडिया नृत्य की परंपरा के विषय में बताते हुए कहा कि यह नृत्य श्री कृष्ण की रास लीला का अंग है। नवरात्रियों में माँ दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए इसे सामूहिक रूप में किया जाता है। आयोजिका निशि प्रकाश ने  मुख्य-अतिथि श्री अशोक लव, विशिष्ट-अतिथि रमा सिन्हा और नरेशबाला लव को पुष्प-गुच्छ भेंट किए और संस्था का परिचय दिया। उन्होंने कहा कि हमारा सौभाग्य है कि इस समारोह का शुभारंभ सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री अशोक लव द्वारा किया जा रहा है। इसके पश्चात् सुंदर और आकर्षक वेश-भूषा में सजी युवतियों ने डांडिया नृत्य प्रस्तुत किया। इस अवसर पर कठपुतली शो भी आयोजित किया गया।

 यह समारोह 'सात्विक फ़ार्म हाउस, नई दिल्ली ' में आयोजित किया गया।

Monday, 11 October 2021

साहित्यकार अशोक लव से शिव नारायण का साक्षात्कार

 

साहित्यकार अशोक लव से शिव नारायण का साक्षात्कार

 [मैने वरिष्ठ साहित्यकार श्री अशोक लव के कविता-संग्रह " लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान " पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से एम फ़िल की है। मैने इसके लिए श्री अशोक लव से उनके कविता -संग्रह और साहित्यिक जीवन के संबंध में विस्तृत बातचीत की।प्रस्तुत हैं इस बातचीत के अंश ]

~ आपको साहित्य सृजन की प्रेरणा कैसे मिली ?

* व्यक्ति को सर्वप्रथम संस्कार उसके परिवार से मिलते हैं। मेरे जीवन में मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि ने अहम भूमिका निभाई है। पिता जी महाभारत और रामायण की कथाएँ सुनते थे। राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत कहानियाँ सुनाते थे। उनके आदर्श थे--अमर सिंह राठौड़ , महारानी लक्ष्मी बाई, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस ,भगत सिंह आदि। वे उनके जीवन के अनेक प्रसंगों को सुनते थे। इन सबके प्रभाव ने अध्ययन की रुचि जाग्रत की। मेरे नाना जी संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। वे वेदों और उपनिषदों के मर्मज्ञ थे। उनके साथ भी रहा था। उनके संस्कारों ने भी बहुत प्रभावित किया। समाचार-पत्रों में प्रकाशित साहित्यिक रचनाएँ पढ़ने की रुचि ने लेखन की प्रेरणा दी। इस प्रकार शनैः - शनैः साहित्य-सृजन के संसार में प्रवेश किया।

--'लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' कविता -संग्रह प्रकाशित कराने की योजना कैसे बनी ?

मेरा पहला कविता-संग्रह ' अनुभूतियों की आहटें ' सन् 1997 में प्रकाशित हुआ था। इससे पहले की लिखी और प्रकाशन के पश्चात् लिखी गई अनेक कविताएँ एकत्र हो गई थीं। इन कविताओं को अन्तिम रूप दिया । इन्हें भाव और विषयानुसार चार खंडों में विभाजित किया-- नारी, संघर्ष, चिंतन और प्रेम। इस प्रकार पाण्डुलिपि ने अन्तिम रूप लिया। डॉ ब्रज किशोर पाठक और डॉ रूप देवगुण ने कविताओं पर लेख लिख दिए।

कविता-संग्रह प्रकशित कराने का मन तो काफ़ी पहले से था। अशोक वर्मा, आरिफ जमाल, सत्य प्रकाश भारद्वाज और कमलेश शर्मा बार-बार स्मरण कराते थे। अंततः पुस्तक प्रकाशित हो गई। एक और अच्छी बात यह हुई कि दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने इसका लोकार्पण किया, जो महिला हैं। उन्होंने इसके नाम की बहुत प्रशंसा की।

--आपने इसका नाम ' लड़कियों ' पर क्यों रखा ?

मैंने पुस्तक के आरंभ में ' मेरी कविताएँ ' के अंतर्गत इसे स्पष्ट किया है-"आज का समाज लड़कियों के मामले में सदियों पूर्व की मानसकिता में जी रहा है। देश के विभिन्न अंचलों में लड़कियों की गर्भ में ही हत्याएँ हो रही हैं। ...लड़कियों के प्रति भेदभाव की भावना के पीछे पुरुष प्रधान रहे समाज की मानसिकता है। आर्थिक रूप से नारी पुरुष पर आर्षित रहती आई है। आज भी स्थिति बदली नहीं है। "

समय तेज़ी से परिवर्तित हो रहा है। लड़कियाँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। आज की लड़कियाँ आसमान छूना चाहती हैं। उनकी इस भावना को रेखांकित करने के उद्देश्य से और समाज में उनके प्रति सकारात्मक सोच जाग्रत करने के लिए इसका नामकरण ' लड़कियों' पर किया। इसका सर्वत्र स्वागत हुआ है।'सार्थक प्रयास ' संस्था की ओर से इस पर फरीदाबाद में चर्चा-गोष्ठी हुई थी। समस्त वक्ताओं ने नामकरण को आधुनिक समय के अनुसार कहा था और प्रशंसा की थी ।

संग्रह की पहली कविता का शीर्षक भी यही है। यह कविता आज की लड़कियों और नारियों के मन के भावों और संघर्षों की क्रांतिकारी कविता है।

--'लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान ' मैं आपने देशी और ग्राम्य अंचलों के शब्दों का प्रयोग किया है। क्यों ?

इसके अनेक कारण हैं। कविता की भावभूमि के कारण ऐसे शब्द स्वतः , स्वाभाविक रूप से आते चले जाते हैं। 'करतारो सुर्खियाँ बनती रहेंगी , तंबुओं मैं लेटी माँ , छूती गलियों की गंध, जिंदर ' आदि कविताओं की पृष्ठभूमि पंजाब की है। इनमें पंजाबी शब्द आए हैं 'डांगला पर बैठी शान्ति' मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्र 'झाबुआ' की लड़की से सम्बंधित है। मैं वहाँ कुछ दिन रहा था। इसमें उस अंचल के शब्द आए हैं। अन्य कविताओं मैं ऐसे अनेक शब्द आए हैं जो कविता के भावानुसार हैं । इनके प्रयोग से कविता अधिक प्रभावशाली हो जाती हैं। पाठक इनका रसास्वादन अधिक तन्मयता से करता है।

--आपके प्रिय कवि और लेखक कौन-कौन से हैं ?

तुलसी,कबीर , सूरदास , भूषण से लेकर सभी छायावादी कवि-कवयित्रियाँ , विशेषतः 'निराला', प्रयोगवादी, प्रगतिवादी और आधुनिक कवि-कवयित्रिओं और लेखकों की लंबी सूची है। ' प्रिय' शब्द के साथ व्यक्ति सीमित हो जाता है। प्रत्येक कवि की कोई न कोई रचना बहुत अच्छी लगती है और उसका प्रशंसक बना देती है। मेरे लिए वे सब प्रिय हैं जिनकी रचनाओं ने मुझे प्रभावित किया है। मेरे अनेक मित्र बहुत अच्छा लिख रहे हैं। वे भी मेरे प्रिय हैं।

--आपने अधिकांश कविताओं में सरल और सहज शब्दों का प्रयोग किया है। क्यों ?

सृजन की अपनी प्रक्रिया होती है। कवि अपने लिए और पाठकों के लिए कविता का सृजन करता है। कविता ऐसी होनी चाहिए जो सीधे हृदय तक पहुँचे। कविता का प्रवाह और संगीत झरने की कल-कल-सा हृदय को आनंदमय करता है। यदि क्लिष्ट शब्द कविता के रसास्वादन में बाधक हों तो ऐसे शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। कविता को सीधे पाठक से संवाद करना चाहिए।

मैं जब विद्यार्थी था तो कविता के क्लिष्ट शब्दों के अर्थ जानने के लिए शब्दकोश का सहारा लेता था। जब कविता पढ़ते-पढ़ते शब्दकोश देखना पड़े तो कविता का रसास्वादन कैसे किया जा सकता है? मैंने जब कविता लिखना आरंभ किया , मेरे मस्तिष्क में अपने अनुभव थे। मैंने इसीलिये अपनी कविताओं में सहजता बनाए रखने के लिए सरल शब्दों का प्रयोग किया ताकि आम पाठक भी इसका रसास्वादन कर सके। मेरी कविताओं के समीक्षकों ने इन्हें सराहा है।

साठोतरी और आधुनिक कविता की एक विशेषता है कि वह कलिष्टता से बची है।

--साहित्य के क्षेत्र में आप स्वयं को कहाँ पाते हैं ?

हिन्दी साहित्य में साहित्यकारों के मूल्यांकन की स्थिति विचित्र है। साहित्यिक-राजनीति ने साहित्यकारों को अलग-अलग खेमों/वर्गों में बाँट रखा है। इसके आधार पर आलोचक साहित्यकारों का मूल्यांकन करते हैं।

दूसरी स्थिति है कि हिंदी में जीवित साहित्यकारों का उनकी रचनाधर्मिता के आधार पर मूल्यांकन करने की परम्परा कम है।

तीसरी स्थिति है कि साहित्यकारों का मूल्यांकन कौन करे ? कवि-लेखक मौलिक सृजनकर्ता होते हैं । आलोचक उनकी रचनाओं का मूल्यांकन करते हैं । आलोचकों के अपने-अपने मापदंड होते हैं। अपनी सोच होती है। अपने खेमे होते है। साहित्य और साहित्यकारों के साथ लगभग चार दशकों का संबंध है। इसी आधार पर यह कह रहा हूँ। रचनाओं के स्तरानुसार उनका उचित मूल्यांकन करने वाले निष्पक्ष आलोचक कम हैं। इसलिए साहित्यकारों का सही-सही मूल्यांकन नहीं हो पाता। हिन्दी साहित्य से संबध साहित्यकार इस स्थिति से सुपरिचित हैं।

मैं साहित्य के क्षेत्र में कहाँ हूँ , इस विषय पर आपके प्रश्न ने पहली बार सोचने का अवसर दिया है।

मैं जहाँ हूँ,जैसा हूँ संतुष्ट हूँ । लगभग चालीस वर्षों से लेखनरत हूँ और गत तीस वर्षों से तो अत्यधिक सक्रिय हूँ। उपन्यास, कहानियाँ, कविताएँ, लघुकथाएँ, साक्षात्कार, समीक्षाएं, बाल-गीत, लेख आदि लिखे हैं। कला-समीक्षक भी रहा हूँ। पत्र-पत्रिकाओं के संपादन से भी संबद्ध रहा हूँ। पाठ्य-पुस्तकें भी लिखी और संपादित की हैं।

सन्1990 में तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा ने उपराष्ट्रपति-निवास में मेरी पुस्तक ' हिन्दी के प्रतिनिधि साहित्यकारों से साक्षात्कार ' का लोकार्पण किया था। यह समारोह लगभग दो घंटे तक चला था।

सन् 1991 में मेरे लघुकथा-संग्रह ' सलाम दिल्ली' पर कैथल (हरियाणा ) की 'सहित्य सभा' और पुनसिया (बिहार) की संस्था ' समय साहित्य सम्मलेन' ने चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित की थीं ।

2009 में दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने ' अपने निवास पर ' लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' का लोकार्पण किया।

अनेक सहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन किया है।

पचास के लगभग सामाजिक-साहित्यिक संस्थाएँ पुरस्कृत-सम्मानित कर चुकी हैं।

इन सबके विषय मैं सोचने पर लगता है, हाँ हिन्दी साहित्य में कुछ योगदान अवश्य किया है। अब मूल्यांकन करने वाले जैसा चाहें करते रहें।

~ इन दिनों क्या लिख रहे हैं ?

' लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान ' के पश्चात् जून में नई पुस्तक 'खिड़कियों पर टंगे लोग' प्रकाशित हुई है। यह लघुकथा-संकलन है। इसका संपादन किया है। इसमें मेरे अतिरिक्त छः और लघुकथाकार हैं।

अमेरिका में दो माह व्यतीत करके लौटा हूँ। वहां के अनुभवों को लेखनबद्ध कर रहा हूँ। हथेलियों पर उतरा सूर्यसंपादित कविता-संग्रह अभी-अभी फ़रवरी 2017 प्रकाशित हुआ है। अपनी कविताओं का नया कविता-संग्रह भी प्रकाशित कराने की योजना है। इस पर कार्य चल रहा है।

--आप बहुभाषी साहित्यकार हैं। आप कौन-कौन सी भाषाएँ जानते हैं?

हिन्दी,पंजाबी और इंग्लिश लिख-पढ़ और बोल लेता हूँ। बिहार में भी कुछ वर्ष रहने के कारण अंगिका और भोजपुरी का भी ज्ञान है। संस्कृत का भी ज्ञान है। हरियाणा में रहने के कारण हरियाणवी भी जानता हूँ।

--'बालिकाएँ जन्म लेती रहेंगी' कविता के द्वारा आपने नारी को ही नारी विरोधी दर्शाया गया है। क्यों ?

* हमारे समाज में पुत्र-मोह अत्यधिक है। संतान के जन्म लेते ही पूछा जाता है- 'क्या हुआ?' 'लड़का' शब्द सुनते ही चेहरे दमक उठाते हैं। लड्डू बाँटे जाते हैं। ' लडकी' सुनते ही सन्नाटा छा जाता है। चेहरों की रंगत उड़ जाती है। अधिकांशतः ऐसा ही होता है।

लड़कियों के जन्म लेने पर सबसे अधिक शोक परिवार और संबंधियों की महिलाएँ मनाती हैं। गाँव - कस्बों, नगरों-महानगरों सबमें यही स्थिति है। ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना 'मनुष्य' है। वह चाहे पुरूष है अथवा महिला। फिर भी अज्ञानतावश लोग ईश्वर की सुंदर रचना ' लड़की' के जन्म लेते ही यूँ शोक प्रकट करते हैं मानो किसी की मृत्यु हो गई हो।

पुत्र-पुत्री में भेदभाव की पृष्ठभूमि में सदियों की मानसिकता है। नारी ही नारी को अपमानित करती है। सास-ननद पुत्री को जन्म देने वाली बहुओं-भाभियों पर व्यंग्य के बाण छोड़ती हैं। अनेक माएँ तक पुत्र-पुत्री में भेदभाव करती हैं।

नारी को नारी का पक्ष लेना चाहिए। इसके विपरीत वही एक-दूसरे पर अत्याचार करती हैं। समाज में लड़कियों की भ्रूण-हत्या के पीछे यही मानसिकता है। मैं वर्षों से इस स्थिति को देख रहा हूँ। 'बालिकाएँ जन्म लेती रहेंगी' कविता में अजन्मी पुत्री अपनी हत्यारिन माँ से अपनी हत्या करने पर प्रश्न करती है। इस विषय पर खंड-काव्य लिखा जा सकता है। मैंने लंबी कविता के मध्यम से नारियों के ममत्व को जाग्रत करने का प्रयास किया है।

--इस संग्रह में आपकी कविताएँ मुक्त-छंद में लिखी गई हैं। आपको यह छंद प्रिय क्यों है?

प्रत्येक कवि विभिन्न छंदों में रचना करता है। किसी को दोहा प्रिय है तो किसी को गीत - ग़ज़ल। मैंने इस संग्रह अपनी मुक्त-छंद में लिखी कविताओं को ही संग्रहित किया है। ।मैं गीत भी लिखता हूँ और दोहे भी लिख रहा हूँ, बाल-गीत भी लिखे हैं।

मैं छंदबद्ध रचनाओं का प्रशंसक हूँ । गीत-ग़ज़ल-दोहे मुझे प्रिय हैं। मेरे अधिकांश मित्र गीतकार-गज़लकार हैं। मैं उनकी रचनाओं का प्रशंसक हूँ । कुछ मित्रों के संग्रहों की भूमिकाएँ लिखी हैं तो कुछ मित्रों के गीत-ग़ज़ल-संग्रहों के लोकार्पण पर आलेख-पाठ किया है।

कविता किसी भी छंद में लिखी गई हो , उसे कविता होना चाहिए। मुक्त-छंद की अपनी लयबद्धता होती है, गेयता होती है, प्रवाह होता है।

--आपने अनेक विधाओं में लेखन किया है। लघुकथाकार के रूप में आपकी विशिष्ट पहचान क्यों है?

लघुकथा की लोकप्रियता की पृष्ठभूमि में अनेक साहित्यकारों द्वारा समर्पित भाव से किए कार्य हैं। सातवें और विशेषतया आठवें दशक में अनेक कार्य हुए। हमने आठवें दशक में खूब कार्य किए। एक जुनून था। अनेक मंचों से लघुकथा पर चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित कीं। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से चर्चाएँ-परिचर्चाएँ कीं। दिल्ली दूरदर्शन पर गोष्ठियां कराईं , इनमें भाग लिया। अन्य साहित्यकारों को आमंत्रित किया। अच्छी बहसें हुईं।

हरियाणा के सिरसा, कैथल, रेवाड़ीऔर गुडगाँव में गोष्ठियां कराईं । बिहार के पुनसिया और झारखण्ड के डाल्टनगंज तक में गोष्ठियों में सक्रिय भाग लिया। दिल्ली-गाजियाबाद में तो कई आयोजन हुए।

लघुकथा -संकलन संपादित किए,अन्य लघुकथा-संकलनों में सम्मिलित हुए। सन् 1988 में प्रकाशित 'बंद दरवाज़ों पर दस्तकें' संपादित किया जो बहुचर्चित रहा। सन् 1991 में मेरा एकल लघुकथा-संग्रह सलाम दिल्लीप्रकाशित हुआ। 'साहित्य सभा' कैथल (हरियाणा) और 'समय साहित्य सम्मलेन ' पुनसिया (बिहार) की ओर से इस पर चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित की गईं।सन 2010 में खिड़कियों पर टंगे लोगलघुकथा संग्रह प्रकाशित हुआ है. संभवतः लघुकथा के क्षेत्र में इस योगदान को देखते हुए साहित्यिक संसार में विशिष्ट पहचान बनी है।

--'लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' पर साहित्यकारों और पाठकों की क्या प्रतिक्रिया हुई है ?

*इस पुस्तक का सबने स्वागत किया है। इसके नारी-खंड की जो प्रशंसा हुई है उसका मैंने अनुमान नहीं किया था। इस पर एम फिल हो रही हैं। 'वुमेन ऑन टॉप' बहुरंगी हिन्दी पत्रिका में तो इस नाम से स्तम्भ ही आरंभ कर दिया गया है। इसमें इस पुस्तक से एक कविता प्रकाशित की जाती है और विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाली युवतिओं पर लेख होता है। कवयित्री आभा खेतरपाल ने 'सृजन का सहयोग' कम्युनिटी के अंतर्गत इस पुस्तक की कविताओं को प्रकाशित करना आरंभ किया था। इन कविताओं पर पाठकों और साहित्यकारों की प्रतिक्रियाएँ पाकर लगता है इन कविताओं ने सबको प्रभावित किया है। जितनी प्रशंसा मिल रही है उससे सुखद लगना स्वाभाविक है।

इनके अतिरिक्त डॉ सुभद्रा खुराना, डॉ अंजना अनिल, अशोक वर्मा , आरिफ जमाल, डॉ जेन्नी शबनम, एन.एल.गोसाईं, इंदु गुप्ता, डॉ अपर्णा चतुर्वेदी प्रीता, कमलेश शर्मा, डॉ कंचन छिब्बर,सर्वेश तिवारी, सत्य प्रकाश भारद्वाज , प्रमोद दत्ता , डॉ नीना छिब्बर, आर के पंकज, डॉ शील कौशिक, डॉ आदर्श बाली, प्रकाश लखानी, रश्मि प्रभा, मनोहर लाल रत्नम, चंद्र बाला मेहता, गुरु चरण लाल दत्ता जोश आदि की लंबी लिखित समीक्षाएँ मिली हैं. इन्होंने इस कृति को अनुपम कहा है। आपने तो इस पर शोध किया है।अपनी रचनाओं का ऐसा स्वागत सुखद लगता है।

मेरा सौभाग्य था कि लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान के माध्यम से वरिष्ठ साहित्यकार अशोक लव जी से मिलने और जानने का सुअवसर मिला.उनकी सरलता-सहजता मुझे सदा प्रेरित करती रहेगी।

Friday, 8 October 2021

तीन सौ साठ डिग्री विश्लेष्ण करती लघुकथाओं का संग्रह: 'एकांतवास में ज़िंदगी' -- Yograj Prabhakar , Editor 'Laghukatha Kalash'


 तीन सौ साठ डिग्री विश्लेष्ण करती लघुकथाओं का संग्रह: 'एकांतवास में ज़िंदगी'


लघुकथा आज लोकप्रियता की बुलंदियों को छूने का प्रयास कर रही है। उसे इस स्थान तक पहुँचाने का श्रेय जिन मनीषियों को जाता है, अशोक लव का नाम भी उनमें शामिल है। आज की लघुकथाएँ काफ़ी सीमा तक आदमी के जीवन में का प्रतिनिधित्त्व कर रही हैं। यही कारण है कि लघुकथा जीवन से सीधे जुड़ी हुई है। इसमें जीवन के किसी एक तथ्य को अपनी संपूर्ण संप्रेषणता के साथ उभारा जाता है। जिसका जितना अधिक अनुभव होगा, जितनी अधिक व्यापक दृष्टि होगी, समझ जितनी अधिक विस्तृत होगी, चिंतन-मनन जितना अधिक स्पष्ट होगा तथा शब्दार्थ और वाक्य विधान का जो मितव्ययी एवं निपुण साधक होगा वह उतनी सटीक लघुकथा रच सकता है।


 आज पूरा विश्व एक भयानक महामारी की चपेट में हैं। यह महामारी प्राकृतिक है या मानव-निर्मित, इसका पता तो शायद ही कभी चल पाए। लेकिन इसके चलते उद्योग, व्यापार और रोज़गार की स्थिति बद-से-बदतर हुई। लगता है कि सब कुछ थम-सा गया है। भयंकर आर्थिक मंदी मुँह बाये खड़ी है, यह किस-किस देश की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करेगी, इसका उत्तर तो भविष्य के गर्भ में ही छुपा है। यह स्थिति हमारे देश की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए क़तई लाभकारी नहीं है।संभवत: द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इस महामारी में सब से अधिक लोगों ने अपनी जान गँवाई है। विद्वानों के मतानुसार हर काल का साहित्य उस युग की सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक वैधानिक और आर्थिक स्थितियों-परिस्थितियों से निर्लिप्त नहीं रहा है। साहित्य ने युग का प्रतिनिधित्त्व किया है या उसे प्रतिबिंबित, काल-संसर्ग सदैव अपेक्षित प्रभावी रहे हैं- किसी भी विधा के स्वरूप निर्धारण, अपितु यहाँ तक कि उसके अस्तित्त्वनिरूपण में भी युग की महती भूमिका रही है।

 वस्तुत: किसी विषय विशेष पर एक पूरा एकल संग्रह तैयार करना जहाँ चुनौतीपूर्ण है वही एक जोखिमभरा कार्य भी है। क्योंकि विविधता का अभाव प्राय: एकरसता और ऊब पैदा कर देता है। किंतु 'एकांतवास में ज़िंदगी' के साथ बिल्कुल नहीं है। इसकी साठ लघुकथाएँ कम-से-कम पचास अलग-अलग विषयों पर आधारित हैं। विषय भी ऐसे जो घर में क़ैद आमजन की व्यथा से लेकर अंतरराष्ट्रीय चिंतन तक को अपने अंदर समोए हुए हैं। इस संग्रह की रचनाओं से गुज़रते हुए मैंने पाया कि अशोक लव सरीखा समर्थ व अनुभवी रचनाकार ही किसी समस्या का तीन सौ साथ डिग्री विश्लेषण करके ही किसी एकल विषय पर भी अद्वितीय प्रस्तुति दे सकता है।

 अशोक लव स्वयं एक प्रखर भाषाविद हैं जो हिंदी व्याकरण पर अनेक ग्रंथ रच चुके हैं। एक सामान्य पाठक लघुकथा के लघु आकार के कारण लघुकथा की ओर आकर्षित होता है, किंतु मेरा मानना है कि लघु अकार के अलावा जो बात पाठकों को अपनी ओर खींचती है, वह है- लघुकथा की आम-फहम भाषा। स्व० जगदीश कश्यप ने कहा था कि अच्छा लेखक वही है जिसे क्लिष्ट शब्दों से परिचय हो परंतु सरल शब्दों में अभिव्यक्ति दे। भाषा-प्रयोग के बारे में प्रेमचंद की लोकप्रियता सर्वविदित है जबकि जयशंकर प्रसाद इसी शुद्ध भाषा प्रयोग के कारण कहानी में उतने सफल नहीं हो सके जितने कि प्रेमचंद। प्रेमचंद ने आम आदमी की भाषा को प्रतिष्ठित किया। ठीक यही बात लघुकथा में लानी चाहिए। आप देखेंगे कि अशोक लव की भाषा एकदम सरल, आमफ़हम, आडम्बरहीन एवं बोलचाल की है, जो आम आदमी को स्वीकार्य हैं। सोद्देश्यता इनकी लघुकथाओं की विशेषता है, साथ ही इसमें शिल्पगत, कथ्यगत, विचारगत, शाब्दिक, भाषिक एवं संवेदनात्मक-गंभीरता, गहनता, तीक्ष्णता, शब्द मितव्ययिता, कलात्मकता कूट-कूटकर भरी हुई है। यही कारण है कि इनकी लघुकथाएँ अत्यंत कम शब्दों में ही अन्तःकरण को झकझोरकर उन्हें मानवीय तथ्यों के प्रति सोचने को बाध्य कर देती हैं। इनकी लघुकथाएँ लघुकथा के मानदंड का पालन करती हैं। इन लघुकथाओं में लघुकथा की प्रत्येक हर कसौटी लघुता, तीक्ष्णता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, कलात्मकता, गहनता और व्यंजना आदि का भली-भाँति निर्वाह किया है, जिसका कथ्य अत्यंत आधुनिक एवं यथार्थपूर्ण है। भाव और शिल्प प्रभावोत्पादक है।

यूँ तो इस संग्रह में एक से बढ़कर एक लघुकथाएँ संग्रहीत हैं; किंतु यहाँ केवल उन लघुकथाओं का उल्लेख करना ही समीचीन होगा जिनका क़द बाकियों से बुलंद है। ‘बड़- बड़ दादी’ कोरोना के चलते लोगों के बदलते हुए स्वभाव की बहुत ही प्यारी-सी बानगी जिसमें हर समय बड-बड करने वाली बूढ़ी दादी अपना कठोर स्वभाव त्यागकर हनुमान चालीसा पढ़ने लगती है। ‘मेरे शहर के बच्चे’ एक अन्य उत्कृष्ट लघुकथा है। जो कोरोना के चलते उद्दंड बच्चों के स्वभाव बदलने और परिवार के एकजुट होने की कथा है। इसी प्रकार ‘आशाएँ’ में लॉकडाउन के चलते समाचारों में मौत की ख़बरें सुन-सुनकर रीतिका के पति सुधीर के ठहाके बंद हो जाते हैं। उपर्युक्त तीनों लघुकथाएँ यथार्थ का सटीक और अर्थगर्भित चित्रण हैं। ‘स्वप्नों पर ग्रहण’ एक भावपूर्ण और मार्मिक लघुकथा है जिसमें कोरोना भयग्रस्त दंपती एक की मृत्यु की सूरत में दूसरे को शादी करने की सलाह देते। ऐसी परिस्थिति किसी का भी दिल चीरने में सक्षम हैं। इसी तरह की एक और लघुकथा ‘स्व-आहुति’ कोरोना महासंकट ने किस तरह आम जनमानस की सोच को प्रभित किया कैसे उनमें असुरक्षा की भावना पैदा की, इसका साक्षात्कार इस रचना में होता है। इस रचना की नायिका रश्मि अपने पति को बाज़ार जाने से रोकती है, और स्वयं सब्ज़ी लेने चलती जाती है। दिमाग़ में यही चल रहा है कि ‘अगर उनको कुछ हो गया तो? यह मानवीय संबंधों की ऊँचाई की पराकाष्ठ नहीं तो और क्या है? कुछ ऐसा ही ‘उपचार’ में देखने को मिलता है जिसमें कोरोना पर इलाज के ख़र्चे की बात सुनकर पति-पत्नी अपनी पति को हिदायत देता है कि यदि वह कोरोनाग्रस्त हो जाए तो उसका इतना महँगा उपचार मत करवाना और वही पैसा भविष्य के लिए अपने लिए रख लेना। ‘और क्या जीना’ में वृद्धों की संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। इस लघुकथा में एक वृद्ध पत्नी एक युवा को संक्रमण से सुरक्षित रखने के लिए अपने पति को बाज़ार भेजने का निर्णय लेती है। इस संग्रह की एक सार्थक लघुकथा है ‘और अलमारी खुली’- लॉकडाउन के चलते अवसाद से बाहर निकालने में पुस्तकें किस प्रकार सहायक हो सकती है, इस लघुकथा में यह संदेश दिया गया है।

हर रचनाकार का कर्तव्य है कि वह अपने अपनी संस्कृति पर गर्व करें और अपने समाज के मूल्यों को अक्षुण रखने का प्रयास करें। अशोक लव को भी अपनी संस्कृति पर गर्व है। जिसकी बानगी उनकी बहुत-सी लघुकथाओं में देखने को मिलेगी। लेकिन यहाँ दो-तीन अति-महत्त्पूर्ण लघुकथाओं का उल्लेख करना ही समीचीन होगा। पहली लघुकथा है ‘संकटमोचन’ इसमें एक महिला की मौत पर उसके सगे संबंधियों ने भी आने समाना कर दिया। लेकिन पड़ोसियों ने पड़ोसी-धर्म क पालन करते हुए उसे सहारा दिया और उसके अंतिम संस्कार में मदद की। यह लघुकथा यथार्थ का सफल चित्रण है। इसके विपरीत ‘कूड़ा बन जाना’ एक तथाकथित विकसित देश की कहानी है जहाँ घरों के आगे ताबूत पड़े हैं, उनको लेने वाला कोई नहीं। परिवारजनों का अपने परिजनों की मृत देहों को लेने से इनकार करना और नगरपालिका द्वारा लावारिसों की तरह उनका अंतिम संस्कार करना दो सभ्यताओं का तुलनात्मक विश्लेषण है। इसी की अगली कड़ी है, ‘न लकड़ी न अग्नि’। यह लघुकथा एक तीर से कई-कई निशाने लगाने में सफल हुई है। इस लघुकथा में अंतिम संस्कार के भारी ख़र्चा के बारे में जानकर लोगों द्वारा अपने मृत परिवारजनों का अंतिम संस्कार नदी किनारे रेत में दबाकर करने की बात हुई है। हम यह भी पढ़ सुन चुके हैं कि सैकड़ों लोग अपने परिजनों की लाशें नदी में बहाने पर भी विवश हुए जोकि स्वाभाविक है कि बेहद दुखद है, किंतु ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी विकसित पश्चिमी राष्ट्रों की तरह अपने परिजनों को लावारिस नहीं छोड़ा।

 भारतीय संस्कृति में दया और दान का बहुत महत्त्व है। ‘मात्र रूपा’ इसी विचारधारा का प्रतिनिधित्त्व करती है। जहाँ लॉकडाउन के चलते बंगाल से आए और नॉएडा में फँसे एक परिवार दयाभाव दिखाए हुए एक घर में आश्रय दे-दिया जाता है। इसका दूसरा उदाहरण है ‘भगवान् सुनते हैं’, यह सैकड़ों मील दूर पैदल अपने गाँव लौट रहे थके-हारे और भूखे-प्यासे प्रवासी श्रमिकों की गाथा है। लेकिन कुछ सिख लोग फ़रिश्ते बनकर वहाँ पहुँचते हैं और उन्हें खाना (लंगर) देते हैं। ‘श्रद्धा’ में लॉकडाउन के कारण भुखमरी की कगार तक पहुँचे एक कर्मकांडी पंडित को धनवंती अपने ससुर की बरसी के बहाने भोजन पहुँचाती है। दयाभाव के इससे बड़े उदाहरण और क्या हो सकते हैं?

 कोरोना विषय पर अनेक रचनाएँ मेरी दृष्टि से गुज़री हैं, किंतु वे डॉक्टरों की लापरवाही अथवा भ्रष्टाचार से आगे नहीं जा पाईं और कोई प्रभाव छोड़ने में असफल रहीं। किंतु अशोक लव ने इन कोरोना योद्धाओं का वह पक्ष उजागर किया है, किसे उजागर करना वांछित भी था और अनिवार्य भी। पहली लघुकथा है ‘पश्चाताप’, इसमें कोरोना योद्धा डॉक्टरों पर हुए हमले की कहानी है। जिसमें दिन-रात रोगियों का उपचार कर रहे लोगों की डॉक्टरों के प्रति असंवेदनशीलता को शब्दांकित किया गया है। कोरोना संक्रमितों की सहायता करने गए चिकित्सा दल पर कुछ सिरफिरे हमला कर देते है जिससे डॉ अवधेश घायल हो जाते हैं। हालाँकि हमला करने वाला युवक अंत में उस डॉक्टर से क्षमा भी माँग ल्रता है। ऐसी ही असंवेदनशीलता ‘निर्लज्ज’ में भी रेखांकित की गई है। इसमें रिहायशी सोसाइटी के लोग एक डॉक्टर दंपती पर ही सवाल उठा देते हैं कि क्योंकि वे हर समय कोरोना संक्रमितों के बीच रहते हैं इसलिए सोसाइटी को उनसे ख़तरा है। लेकिन इस लघुकथा का जुझारू डॉक्टर मल्होत्रा उनसे प्रतिप्रश्न करते हुए पूछता है कि हम डॉक्टर लोग तो दिन-रात लोगों की ज़िंदगियाँ बचने में लगे हुए हैं, पर हम पर उँगलियाँ उठाने वाले क्या कर रहे हैं? ‘जीवन स्पंदन’ भी एक बहुत ही भावपूर्ण लघुकथा है। इस में जीवन की आशा गँवा चुके रोगी में अचानक आए जीवन स्पंदन का बहुत ही सारगर्भित चित्रांकन किया गया है। इसमें न केवल रोगी के परिजन ही राहत की साँस लेते हैं बल्कि स्वयं डॉक्टर भी भी सतही भी वही होती है। यह रचना न केवल डॉक्टरों के बल्कि स्वयं लेखक के संवेदनशील व्यक्तित्त्व को भी उजागर करती है। ऐसा नहीं कि लेखक ने चिकित्सा क्षेत्र के नकारात्मक पक्ष पर क़लम न चलाई हो। ‘दो ईमानदार’ कोरोनाकाल में दवाइयों की ब्लैक मार्केटिंग करने वालों की ख़ूब ख़बर ली गई है। लेकिन यहाँ भी डॉक्टरों को भ्रष्टाचार में लिप्त न दिखाकर अशोक लव ने अपने नैतिक कर्तव्य का निर्वाह किया है।

मेरा मानना है कि अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का सफ़र जितना लंबा होगा, रचना उतनी ही परिपक्व व प्रभावोत्पादक होगी। क्योंकि किसी कृति को कलाकृति में परिवर्तित करने हेतु यह लंबा सफ़र अनिवार्य है। इसी अलोक में अब मैं बात करना चाहूँगा उन दो लघुकथाओं की जो अपनी बनावट बुनावट और कथानक के विलक्षण ट्रीटमेंट के कारण दीर्घजीवी सिद्ध होंगी। इन श्रेणी में सबसे पहले आती है ‘चलें गाँव’ यह लीक से हटकर एक बेहतरीन लघुकथा है। लॉकडाउन के करण बेकार हो चुके मज़दूर कुणाल के पास अपने गाँव लौट जाने के अलावा और कोई चारा नहीं। अब यहीं से उसके मन में द्वंद्व शुरू हो जाता है कि यदि तो वह कोरोना पीड़ित होकर शहर में ही मर गया तो उसकी लाश का क्या होगा। इससे बेहतर होगा कि वह अपने गाँव जाकर ही मरे। लेकिन फिर उसे अपने घर की ख़राब आर्थिक स्थिति का भी ध्यान आता है। वह जाने के लिए बस में बैठ जाता है। किंतु वह नहीं चाहता कि वह अपने घर वालों पर अतिरिक्त बोझ डाले क्योंकि शहर में कम-से-कम उसे एक समय का भोजन तो सरकार की ओर से उपलब्ध करवाया जा रहा है। किंतु इन सभी बातों के अलावा जो बात इस लघुकथा में अनकही है, वह है कुणाल का जुझारूपन और जीवत। अत: वह इस ऊहापोह को झटकर संघर्ष के इरादे से बस से उतर जाता है। क्योंकि वह घर वालों पर बोझ नहीं बनना चाहता है। वस्तुत: कुणाल ‘सलाम दिल्ली’ का नायक अशरफ़ ही है। केवल परिदृश्य बदला है, न तो परिस्थितियाँ ही बदली हैं और न ही कुणाल उर्फ़ अशरफ़ का संघर्ष और उनके अंदर का जुझारूपन। ऐसी लघुकथा को सौ-सौ सलाम!

 ‘असहाय न्यायालय’ को इस संग्रह का 'हासिल' कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी। जिसकी हर पंक्ति सौ-सौ प्रश्नचिह्न खड़े करती है। इस लघुकथा की नायिका जो एक अधिवक्ता है, अपने भाई को अस्पताल में बेड न मिलने के कारण बहुत व्यथित है। उसे विश्वास था कि न्याय-व्यवस्था उसके भाई को बेड और ऑक्सीजन अवश्य उपलब्ध करवा देगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और दुर्भाग्य से उसके भाई की मृत्यु हो गई। वह निराशा में इसे अपनी पराजय मानती है। लेकिन माननीय न्यायाधीश कहते हैं कि- तुम नहीं हारी, हम हारें हैं, हमारा देश हारा है और व्यवस्थ हारी है। कोरोनाकाल में जो कुछ भी हुआ, यह पंक्ति सब कुछ बयान कर देती है। मुझे लगता है कि इस लघुकथा पर आधारित एक सफल टेलीफिल्म बन सकती है।

हिंदी-लघुकथा में सार्वभौमिकता का अभाव इस विधा की एक कमज़ोर कड़ी है। इसका एक कारण है लघुकथाकारों का अप-टू-डेट न होना और दूसरा अपने खोल से बाहर न निकलना। आचार्य जानकीवल्लभ शात्री ने कहा था कि आज के लघुकथाकारों क्या सभी साहित्यकारों को सबसे पहले अप-टू-डेट होना चाहिए। आज विश्व स्तर पर कितनी उथल-पथल मची हुई है। उस स्तर पर देखना चाहिए कि वहाँ के साहित्यकार कितने जागरूक या उत्तेजक, आग उगलते या बर्फ़ीले शब्दों में वाणी दे रहे हैं या उन बातों को लोगों के सामने प्रकट कर रहे हैं। यह देखना-पढ़ना चाहिए। दुनिया हर रोज़ बदल रही है। कल के मित्र राष्ट्र आज शत्रु बन रहे हैं और शत्रु राष्ट्र मित्र। और मज़े की बात यह है कि बाहर से शत्रु दिखने वाले राष्ट्र अपने-अपने स्वार्थ और लाभ के लिए ये आपस में हाथ मिलाने से भी गुरेज़ नहीं करते और अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों में भागीदार बनते हैं। केवल एक सचेत और अप-टू-डेट रचनाकार ही इन बातों की तह तक पहुँच सकता है। इस संदर्भ में 'चीनी फोबिया' एक अति-उत्तम लघुकथा है। यह रचना अमेरिका में रहने वाली अनुभूति और उसकी माँ के मध्य हुई फोन वार्ता पर आधारित है। यह रचना कोरोना फैलाने के चीनी षड्यंत्र से पर्दा उठाती है। अनुभूति की माँ को पूरा विश्वास है कि चीन अपने यहाँ हुई मौतों का सही आँकड़ा नहीं बता रहा। विश्व का निष्पक्ष मीडिया बता रहा है कि कोरोना वायरस चीन की वुहान प्रयोगशाला से निकला, यह बात भले ही अफ़वाह मान ली जाए लेकिन धुआँ कभी भी बे वजह नहीं उठता। वैसे इस चीनी षड्यंत्र को आज तक झुठलाया भी तो नहीं गया है। भारतवर्ष चीन के विरुद्ध कुछ भी करने में सक्षम नहीं, कम्युनिस्ट रूस भला चीन के विरुद्ध क्यों बोलेगा? अब ले देकर दुनिया को आशा है कि अमरीका इस मामले में कुछ-न-कुछ अवश्य करेगा। लेकिन पूरा विश्व जानता है कि वुहान लैब को अमरीकी फंडिंग थी। फिर भी अनुभूति की माँ को विश्वास है कि अमेरिका कुछ ज़रूर करेगा और यह बात उसको सुकून देती है। फोन पर अदिति का अपनी माँ को टोकते हुए कहना कि ऐसी बातें फोन पर नहीं किया करते, किस ओर इशारा कर रहा है? क्या अमेरिका को भी अपना पर्दाफ़ाश होने का डर सता रहा है? मुझे लगता है कि ऐसी सार्वभौमिक लघुकथाओं की आज बहुत आवश्यकता है।

 इस संग्रह की मेरी पसंदीदा एक अन्य सार्वभौमिक लघुकथा है, 'देश बचना चाहिए'। यह एक बिल्कुल ही नवीन विषय को लेकर रची गई लघुकथा है जिसमें कथानक की ट्रीटमेंट देखते ही बनती है। ऐसा कथानक शायद ही हिंदी-लघुकथा में इससे पहले कभी प्रयोग किया गया हो। इस लघुकथा के केंद्र में संभवत: संयुक्त राज्य अमेरिका के उपराष्ट्रप्ति व राष्ट्रपति हैं। दोनों के मध्य देशव्यापी लॉकडाउन हटाने के विषय में विचार-विमर्श चल रहा है। विमर्श किसी की लोकतांत्रिक व्यवस्था का अभिन्न अंग होता है। उपराष्ट्रप्ति लॉकडाउन हटाने के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि इससे मौतों का आँकड़ा बढ़ने की आशंका है। जबकि राष्ट्रपति लॉकडाउन बढ़ाने के विरुद्ध हैं, उनका मत है कि इससे देश की अर्थव्यवस्था और भी चरमरा जाएगी। दोनों के तर्क अपने-अपने स्थान पर सही लगते हैं। लघुकथा अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ती है। उपराष्ट्रपति अपने राष्ट्राध्यक्ष के तर्क से सहमत हो जाते हैं और उन्हें सलाह देते हैं कि वे एक संदेश के माध्यम से लोगों को कोरोना से सुरक्षित रहने संबंधी दिशा-निर्देश दें। लोकतांत्रिक व्यवस्था की सुंदरता देखें कि राष्ट्रपति भी उपराष्ट्रपति के इस सुझाव से सहमत हो जाते हैं। अंत में राष्ट्रपति कहते हैं कि यह स्थिति किसी युद्ध से कम नहीं, यदि देश को बचने के लिए कुछ जानों का बलिदान करना भी पड़ा तो हम तैयार हैं क्योंकि हमें देश बचाना है। इस लघुकथा में भी उपराष्ट्रपति महोदय कोरोना वायरस के पीछे दुश्मन राष्ट्र के षड्यंत्र की ओर इशारा करते हैं। हमारे देश में जिस तरह बिना किसी पूर्वसूचना के लॉकडाउन लागू किया गया और बिना किसी तैयारी के हटाया गया, यह लघुकथा अप्रतयक्ष रूप से उस ओर भी इशारा करती है। कहते हैं कि एक लेखक भगवान की तरह होना चाहिए, जो अपनी रचना में मौजूद तो हो किंतु दिखाई नहीं दे। अशोक लव अपनी रचनाओं में कहते तो सब स्वयं हैं लेकिन बोलते उनके पात्र हैं। यह बात आज की पीढ़ी के लिए सीखने योग्य है। अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अशोक लव का उच्च-स्तरीय ज्ञान और पैनी दृष्टि इस लघुकथा से परिलक्षित होती है। यदि इस स्तर की लघुकथाएँ हिंदी में लिखी जाने लगें तो हमारी लघुकथा भी विश्व की अन्य लघुकथाओं के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हो जाएगी।

बलराम अग्रवाल के अनुसार लघुकथा किसी भी अर्थ में दनदनाती हुइ गोली नहीं है। यह इस प्रकार ‘सर्र’ से आपके सीने के निकट से कभी नहीं गुज़रेगी कि बदहवास से आप देखते ही रह जाएँ। पढ़ते-पढ़ते आप देखेंगे कि यह आपको झकझोर रही है। आपके ज़ेहन में कुछ बोल रही है - धीरे-धीरे आपको अहसास दिलाती है कि एक जंगल है आपके चारों ओर, और आप उसके बाहर निकल आने के लिए बेचैन हो उठते हैं। जंगल के बाहर निकल आने के समस्त निश्चयों-प्रयासों के दौरान लघुकथा आपको अपने सामने खड़ी दिखाई देती है- हर घड़ी-हर लम्हा। इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ उपर्युक्त कथन के निकष पर खरी उतरती हैं। इनकी लघुकथाएँ लघुकथा के मानदंड का पालन करती हैं। इन लघुकथाओं में लघुकथा की प्रत्येक हर कसौटी लघुता, तीक्ष्णता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, कलात्मकता, गहनता और व्यंजना आदि का भली-भाँति निर्वाह किया है, जिसका कथ्य अत्यंत आधुनिक एवं यथार्थपूर्ण है। भाव और शिल्प प्रभावोत्पादक है।

 'सलाम दिल्ली' के प्रकाशन के तीन दशक पश्चात् प्रस्तुत लघुकथा संग्रह 'एकांतवास में ज़िंदगी' का प्रकाश में आना एक शुभ संकेत है। इसका कुछ श्रेय श्री अशोक लव ने हमारी पत्रिका 'लघुकथा कलश' को भी दिया है। बहरहाल, यह संग्रह हिंदी-लघुकथा को और समृद्ध करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। अत: ऐसी कृति का भरपूर स्वागत होना चाहिए।

Tuesday, 5 October 2021

एयर फ़ोर्स नैवल ऑफिसर एनक्लेव (द्वारका, नई दिल्ली) 'मंथन' द्वारा गांधी- शास्त्री जयंती के अवसर पर साहित्य संध्या ,वरिष्ठ साहित्यकार श्री अशोक लव मुख्य-अतिथि

 एयर फ़ोर्स नैवल ऑफिसर एनक्लेव (द्वारका, नई दिल्ली) की संस्था 'मंथन' द्वारा गांधी- शास्त्री जयंती के अवसर पर साहित्य संध्या आयोजित की गई। इसमें वरिष्ठ साहित्यकार श्री अशोक लव मुख्य-अतिथि थे। इसका कुशल आयोजन कैप्टन मोहित कपूर ने किया। ग्रुप कैप्टन प्रदीप अग्निहोत्री ने संचालन किया। कार्यक्रम के आरंभ में ग्रुप कैप्टन शैलेंद्र शैल (मोहन) ने अपने उपन्यास ' रावी से यमुना तक ' के प्रथम अध्याय का वाचन किया। इसके पश्चात इन कवि - कवयित्रियों ने कविता-पाठ किया-- सुश्री यामिनी कपूर, सुश्री नीता सैनी, कर्नल जी.के.सिंह, सुश्री मंजुलता चतुर्वेदी, ग्रुप कैप्टन सुशील भाटिया, सुश्री मंजूषा रंजन, ग्रुप कैप्टन (डा.) आर. के. श्रीवास्तव, डा. गौरी श्रीवास्तव, ग्रुप कैप्टन एस. सी.शर्मा , ग्रुप कैप्टन शैलेंद्र शैल, ग्रुप कैप्टन प्रदीप अग्निहोत्री। अपने संबोधन में श्री अशोक लव ने कहा कि कविता व्यक्ति की संवेदनाओं को जीवित रखती है। एयर फ़ोर्स, आर्मी और नेवी के पदाधिकारियों ने इतनी श्रेष्ठ कविताएँ सुनाई हैं। ये कविताएँ उनकी संवेदनशीलता दर्शाती हैं। वास्तव में कविता मन के गहन भावों की अभिव्यक्ति है। 

श्री अशोक लव ने दोहे और कविताएँ भी सुनाईं। उन्होंने ग्रुप कैप्टन शैलेंद्र शैल को उनके उत्कृष्ट  उपन्यास  के लिए बधाई दी और इसे ऐतिहासिक कृति  की संज्ञा दी। कार्यक्रम आयोजन में सुश्री यामिनी कपूर ने अहम भूमिका निभाई। कार्यक्रम के आरंभ में मुख्य - अतिथि और कवियों को वृक्ष-उपहार भेंट देकर सम्मानित किया गया। इस अवसर पर श्री अशोक लव ने कवि - कवयित्रियों को अपनी लिखी पुस्तक ' श्रीमद्भगवत गीता जीवन दिशा ' भेंट की। 

•समाचार :कुतुब मेल