Friday, 12 August 2011

काहे न धीर धरे / अशोक लव

और अधिक , और अधिक पाने और संग्रहित करने की इच्छा की पूर्ति हेतु मनुष्य अनवरत भाग रहा है। प्रातः से सायं ही नहीं अपितु देर रात तक कोल्हू के बैल के समान कार्यरत रहने लगा है. उसे न अपनी चिंता है और न अपने घर - परिवार की चिंता है. चिंता है केवल अधिक से अधिक धन अर्जित करने की. प्रातः घर से निकले और लौटेंगे कब ,कोई पता नहीं !व्यापारी अपने व्यवसाय को और अधिक विस्तार देने में शेष सब कुछ भुला देते हैं। नौकरी करने वाले अधिक धन कमाने के लालच में नौकरी के समय के पश्चात् भी कार्य करने चले जाते हैं। भागते लोग, भागती भीड़ ...कहाँ जा रहे हैं , कुछ होश नहीं है। धन और धन , बस और धन --यही जीवन का लक्ष्य रह गया है।सब व्यस्त हैं , अस्त-व्यस्त हैं . यह व्यस्तता क्या है ? किसलिए है? क्यों है ? इसके विषय में सोचने का भी समय नहीं है।धन का महत्त्व है। इसे नकार नहीं सकते। जीवन-स्तर श्रेष्ठ बने, इसके लिए धन चाहिए।हर प्रकार की सुख-सुविधा उपलब्ध हो, हो जाए तो और उपलब्ध हो....इसलिए खूब भागो...जो आगे बढ़ गए है उन्हें पीछे छोड़ो --यह अंधी दौड़ सुख चैन छीन रही है। इस अंधी दौड़ में भागता मनुष्य कब युवावस्था और अधेड़ावस्था को पार कर जाता है, उसे पता ही नहीं चलता। और जब पता चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। तब इस अंधी दौड़ से अर्जित धन के भोग के लिए देह कमज़ोर चुकी होती है।कबीर ने बहुत अच्छा लिखा है--मन सागर , मनसा लहरी, बूड़े -बहे अनेक ।कहि कबीर ते बाचिहैं, जाके हृदय बिबेक। ।
मन रूपी सागर में इच्छा रूपी लहरें उठती रहती हैं. एक लहर किनारे तक आती है तो दूसरी उसके पीछे-पीछे आ जाती है. इसी प्रकार एक इच्छा पूरी होती है तो दूसरी सामने आ जाती है. मनुष्य उसे पूरा करने में संलिप्त हो जाता है. एक के पश्चात एक इच्छाएं  जन्म लेती  है और मनुष्य उन्हें पूरा करने में लग जाता है. इन इच्छाओं रूपी लहरों में अधिकतर लोग बह जाते है. अनेक डूब कर मर जाते हैं केवल वही इनमें डूबने से बचते हैं जिनमें ' विवेक' होता है.
वर्तमान समाज में अधिकांशतः लोगों की यही दशा है. वे जो है उसके महत्त्व को नहीं जानते और जो नहीं है उन भौतिक वस्तुओं को पाने और संग्रहित करने केलिए भाग रहे हैं.दिन-रात चिंतामग्न रहते हैं. चिता तनावों की जननी है. तनावग्रस्त होकर मनुष्य भांति-भांति के रोगों से पीड़ित हो जाता है. उसकी ' विवेक' शक्ति नष्ट हो जाती है. वह सम्मानपूर्वक जीने के अर्थ भूल जाता है. नैतिक और अनैतिक में भेद न करके जैसे संभव हो धन के अम्बार लगाने में जुटा रहता है. यही कारण है राजनेतागण , उच्च पदाधिकारी , उद्योगपति और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति घोटाले पर घोटाले करते हैं. समाचार-पत्र, टीवी उनके कारनामों के पृष्ठ पर पृष्ठ प्रकाशित करते हैं / दिखाते हैं. अनेक जेल-यात्रा करते हैं और बाहर आकर निर्लज्ज घूमते हैं.
ये लोग भूल जाते हैं कि समय बहुत तेज़ी  का साथ भागता है. वे धन के अम्बार जुटाते-जुटाते कब संसार से विदा ले लेते है, किसी को पता ही नहीं  चलता. उनकी स्मृति  एक भ्रष्ट व्यक्ति के रूप में सदा-सदा के लिए अंकित रह जाती है.
हम अनेक बार कहते हैं--लाल किला यहाँ,शाहजहाँ कहाँ ?
आज शाहजहाँ को कोई नहीं पहचानता. विश्व के  अनेक राष्ट्रपति मर गए, प्रधानमंत्री मर गए. लोगों को उनके नाम तक स्मरण  नहीं हैं. इन धन अर्जित करने की दौड़ में भागने वालों को उनके परिवार की तीसरी पीढी तक स्मरण नहीं करेगी.
थोड़ी देर के लिए रुकें. अपने विषय में सोचें.अपने उचित-अनुचित कार्यों का विश्लेषण करें. अपने जीवन के उद्देश्यों के विषय चिंतन करें सम्मानपूर्वक जीने के मार्ग निर्धारित करें . ' धैर्य ' को अपनाएँ. मन है तो विचलित भी होगा. उसे समझाएँ-- मन रे काहे न धीर धरे !

-- अशोक लव

No comments: