प्रिय मित्र श्री अशोक वर्मा की यह ग़ज़ल बेहद पसंद है.
छूते नहीं हैं पाँव से अब तो ज़मीन लोग
रहते हवाओं में सदा सारे हसीन लोग.
झाँका किया खिड़की से वो मासूम-सा बच्चा
निकले सुबह तो शाम को लौटे ज़हीन लोग.
अपना नगर है चल ज़रा तू देखभाल कर
दे जाएँ ना धोखा कहीं बेहतरीन लोग.
जब से लगा है आईना इस शहर के करीब
बगलें लगे हैं झाँकने कुछ नामचीन लोग.
फुर्सत नहीं अपनों से जो कर पाएँ दिल की बात
यूं बन के सारे रह गए हैं जैसे मशीन लोग.
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-पुस्तक- ग़ज़ल बोलती है से साभार
छूते नहीं हैं पाँव से अब तो ज़मीन लोग
रहते हवाओं में सदा सारे हसीन लोग.
झाँका किया खिड़की से वो मासूम-सा बच्चा
निकले सुबह तो शाम को लौटे ज़हीन लोग.
अपना नगर है चल ज़रा तू देखभाल कर
दे जाएँ ना धोखा कहीं बेहतरीन लोग.
जब से लगा है आईना इस शहर के करीब
बगलें लगे हैं झाँकने कुछ नामचीन लोग.
फुर्सत नहीं अपनों से जो कर पाएँ दिल की बात
यूं बन के सारे रह गए हैं जैसे मशीन लोग.
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-पुस्तक- ग़ज़ल बोलती है से साभार
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