Saturday, 13 February 2010

गाँव की गंध / अशोक लव

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भीड़ भरे नगर के अकेलेपन में
रह-रहकर भर आती हैं स्मृतियाँ
रह-रहकर भर आती है गंध -
गाँव की , टेढ़ी-मेढ़ी गलियों की ।
धूल भरी गलियों में
सिर पर उपलों के ढेर उठाए
आ-जा रही होंगी -
रधिया,गुलाबो,किसनी
जा रहे होंगे भैंस नहलाने -
फकीरिया,जोधु,पासू ।
पहुँचकर जोहड़ किनारे
बैठकर भैंसों पर
उतर गए होंगे जोहड़ में
कूदकर पानी में खूब तैरे होंगे
थककर पकड़ ली होगी भैंसों की दुम
और चढ़ बैठे होंगे भैंसों पर।
माँ बैठी होगी चूल्हे के पास
फूँकें मार-मार सुलगती होगी आग
पल्लू से पोंछती जाती होगी
छम-छम बहता आँखों का पानी।
दहलीज के बाहर चौंतरे पर
खात बिछाए बैठा होगा बापू -
गुडगुडा रहा होगा हुक्का,
संग बैठे होंगे-
भगवाना,रामदयाल,बसेसर
मिल बाँट रहे होंगे
गाँव -शहर,देश-परदेश की चिंताएँ।
लौट आया होगा खेतों से भाई
कड़-कड़ ,खड़-खड़ करते ट्रैक्टर का शोर सुन
निकल आई होगी भौजाई।
गाँव भर में उतर आई होगी सांझ ,
आई होगी परकाशो
कुछ लेने, कुछ देने के बहाने
पता नहीं माँ ने बताया होगा या नहीं
मेरा समाचार
पता नहीं परकाशो गई भी होगी या नहीं
माँ के पास ?
पता नहीं वह करती भी होगी या नहीं
मेरी प्रतीक्षा?
पता नहीं उसके बापू ने कर न दिया हो
उसका रिश्ता
वह रह गई हो खामोश ।
गाँव की लड़कियाँ
आखिर गाँव की होती हैं ,
नहीं-नहीं !
लड़कियाँ अपने गाँव की कहाँ होती हैं!
छोड़ना ही होता है उन्हें अपना गाँव
क्या पता छोड़ गई हो परकाशो भी
अपना गाँव ?
तुम बहुत याद आते हो
भीड़ भरे नगर में
नगर के अकेलेपन में मेरे गाँव।
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*@सर्वाधिकार अशोक लव
पुस्तक-अनुभूतियों की आहटें ( १९९७)

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