Wednesday, 28 January 2009

एक दुनिया थी ओबामा की
फूस की झोंपड़ी
कच्ची दीवारें
कच्चे रास्ते

दीवारें कच्ची थीं
पाँव के नीचे की ज़मीन कच्ची थी
पर सपने सच्चे थे
इच्छाशक्ति दृढ़ थी
आकाश को छूने के इरादे सच्चे थे

पाँव के नीचे गया
दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण
व्हाइट हाउस !
और देख रहे हैं हम सब
इस आदमी को
उसके इरादों को
हमारी शुभकामनाएं !!

-अशोक लव
- ashok lav

Tuesday, 20 January 2009

समीक्षा -' लडकियां छूना चाहती हैं आसमान ' /*समीक्षक-रश्मि प्रभा


सूर्य और अशोक लव
अशोक लव जी एक बहुआयामी प्रतिभा के विशिष्ट लेखक हैं--उनके विषय में लिखना,मुझे गौरवान्वित तो कर रहा है,पर एक-एक शब्द सूर्य के निकट दीये की मानिंद ही प्रतीत होंगे ।
अशोक लव जी से मेरे परिचय का माध्यम उनका ब्लॉग बना - "लडकियां छूना चाहती हैं आसमान" विषय ने मुझे आकर्षित किया। लड़कियों के प्रति आम मानसिकता हमसे छुपी नहीं है.....उससे अलग उनकी ख्वाहिशों को किसने परिलक्षित किया , यह जानने को मेरे कदम उधर बढ़े,
'बेटियाँ होती ठंडी हवाएं
तपते ह्रदय को शीतल करनेवाली,
बेटियाँ होती हैं सदाबहार फूल ,
खिली रहती हैं जीवन भर .....'
मैं मुग्ध भाव लिए पढ़ती गई और अपने विचार भी प्रेषित किए, मेरी खुशी और बढ़ी,जब मैंने उन्हें ऑरकुट पर भी
पाया और विस्तृत रूप से उनकी उपलब्धियों के निकट आई।
इनको पढ़ते हुए लगा , समाज की संकीर्ण मानसिकता के आगे लड़कियों की महत्वकांक्षा को इन्होंने बखूबी परिलक्षित किया है;
' लडकियां
अपने रक्त से लिख रही हैं
नए गीत
वे पसीने की स्याही में डुबाकर देह
रच रही हैं
नए ग्रन्थ !'
लड़कियों की खुद्दारी को परिभाषित करती हैं,वरना पूर्व समाज का ढांचा था,
'पुत्रियाँ होती हैं जिम्मेदारियाँ
जितनी जल्दी निपट जाए जिम्मेदारियाँ
अच्छा रहता है..........'
दर्द का एक आवेग उभरता है इन पंक्तियों में -
'पिता निहारते हैं उंगलियाँ
जिन्हें पकड़कर सिखाया था
बेटियों को टेढ़े - मेढ़े पाँव रखकर चलना...........
कितनी जल्दी बड़ी हो जाती हैं बेटियाँ '
कविताओं की यात्रा के दौरान मुझे लगा कि आए दिन की घटनाओं से इनकी निजी ज़िन्दगी भी प्रभावित होगी, यानी किसी बेटी की ज़िन्दगी का कोई पक्ष और अपने विचारों की रास थामकर मैंने पूछ ही लिया........मुझे बहुत खुशी हुई ,जब मैंने जाना कि इनकी तीन पुत्रियाँ (ऋचा,पल्लवी,और पारुल),इनके विचारों की उज्जवल प्रवाह हैं, काव्य की स्तम्भ हैं ।
इनकी सूक्ष्म विवेचना इनके सूक्ष्म संवेदनशील मन को दर्शाती है,जो समाज के घृणित घेरे से निकलकर लड़कियों के आसमानी ख्यालों को,उनकी ऊँची उड़ान को, शब्दों की बानगी देती है।
अशोक जी ने स्त्री के हर रूप को सामाजिक कैनवास पर उतारा है और विभिन्न विशिष्ट रंगों से संवारा है - माँ के रूप को चित्रित करते हुए कहा है;
'माँ !
उर्जावान प्रकाशमय सूर्य-सी
रखती आलोकित दुर्गम पथ
करती संचरित हृदयों में
लक्ष्यों तक पहुँचने की ऊर्जा !'
एक युवती,एक बहन,एक पत्नी को शब्दों की अद्भुत बानगी दी है।
भ्रूण ह्त्या के ख़िलाफ़ भी एक लड़की को दृढ़ता दी है -
' माँ !
तुम स्वयं को भूल गई,
तुम भी बालिका थी,
पर नहीं की थी
तुम्हारी माँ ने तुम्हारी ह्त्या
दिया था तुम्हें जन्म
दिया था तुम्हें ज़िंदा रहने का,
जीने का अधिकार !'
इसी समाज का कवि भी है,पर अपनी कलम को तलवार बनाकर पुरुषों की मानसिकता पर हर तरह से वार किया है,जो वन्दनीय है। मन के हर भावों को प्रस्तुत करते हुए , अपनी लम्बी यात्रा के हर अनुभव को सार्थक बनाया है। सत्य का पुट हर कविता में है , जिसने स्त्री के हर दर्द और निश्चय को चित्रमान कर दिया है । दुःस्वप्न और वर्तमान के अंतःकरण में खुले आकाश को विस्तार दिया है। सृजन के क्षणों में अचेतन का दर्द अधिक मुखर है,हर कविता जीवंत लगती है -
'बेटियाँ होती हैं मरहम
गहरे-से-गहरे घाव को भर देती हैं
संजीवनी स्पर्श से ...........
लडकी के कोमल स्वरुप को दर्शाती है
मातृत्व को कवि ने 'कविता' का दर्जा दिया है-

'माँ की देह से सर्जित देहें
उसकी कविताएँ हैं
बहुत अच्छी लगती हैं माँ को
अपनी कविताएँ !'
संघर्ष का ताना-बाना रचते हुए कवि ने नारी की जिजीविषा को एक सांकेतिक स्वरुप में पिरोया है;
'तपती है मोम
आग बन जाती है
चिपककर झुलसा देती है !
...

समयानुसार जीवन को मोम बनना पड़ता है..'
कविताओं में शुरू से अंत तक प्रवाह बना रहता है. कविताएँ दिल को छूती हैं। हर सन्दर्भ में कवि की चेतना जागृत है। संकलन की बहुत सारी रचनाओं में प्राणों की आहत वेदना झलकती है ।
रचनाओं के बीच से गुजरते हुए मुझे हर पल एहसास हुआ कि कवि ने सामाजिक विषमता को नज़दीक से महसूस किया है. एक अनुभवी दस्तावेज़ की तरह उनकी भावनाएँ पुस्तक को एक नया आयाम देती हैं।
इनदिनों अपने समय का आइना बनकर लड़कियों कि छवि को दर्शानेवाला धारावाहिक 'बालिका वधू'लड़कियोंकी स्थिति को उजागर करता है । एक १३,१४ साल की लडकी , एक ३५ वर्ष का पुरूष ! ऐसी बंदिशों से बाहर निकलकर लड़कियों ने अपनी मर्यादा की नई तस्वीर बनाई है , जिसे अशोक लव जी ने अपने काव्य में ढाला है ।
इस काव्य के उज्ज्वल पक्ष को यदि पुरूष समाज पढ़े और लड़कियों के आसमान को मुक्त करे तो बात बन सकती है। युगों से दबाकर रखी गई प्रकृति की सबसे मजबूत शख्सियत को आगे लेकर जाने में अगर पुरुष पाठक सहयात्री की भूमिका निभा सकें तो अपने पूर्वजों की उन गलतियों का प्रायश्चित कर सकेंगे , जो लड़कियों के साथ की गई हैं।
कवि के इस संग्रह का सार यही है।

भाषा की सरलता का ध्यान कवि ने पूरी तरह से रखा है ताकि एक आम परिवेश तक इसमें छुपा संदेश पहुँच सके। *
.....................................................................................................................................
*पुस्तक - लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान *कवि- अशोक लव *प्रकाशन वर्ष-२००८, प्रकाशक-सुकीर्ति प्रकाशन,कैथल *मूल्य-१०० रु.*कवि सम्पर्क- फ्लैट-३६३,सूर्य अपार्टमेन्ट ,सेक्टर-,द्वारका,नई दिल्ली-११००७५ (मो) 9971010063

Monday, 19 January 2009

मानवीय चेतना को झकझोरने का प्रयास / * डॉ कंचन छिब्बर

विविध विधोन्मुखी रचनाकार श्री अशोक लव का नवीनतम काव्य- संग्रह ' लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' हस्तगत है। उत्कृष्ट! अपूर्व! अद्भुत! हृदयस्थ अनुभूतियों को वैचारिक अभिव्यक्ति में विवर्तित करने का सद्प्रयास !लेकिन कवि का प्रयोजन भावों की अभिव्यंजना से भी आगे जाकर मानवीय चेतना को झकझोरने का प्रयास करना है। वे केवल आशाओं के जुगनू ही नहीं चमकाते , उस रोशनी से चेतना के सूरज उगाते हैं।
संग्रह का मुख्य स्वर समाजोन्मुखता का है। प्रथम तीन खंडों - नारी , संघर्ष और चिंतन में यथार्थ के प्रति सावधान रहने का आग्रह और भविष्य को संवारने की ललक स्पष्ट दिखाई देती है।
'नारी' खंड में ' माँ और कविता ', 'आशीर्वादों की कामधेनु ',नारी के मातृरूप की वंदना है तो 'बालिकाएँ जन्म लेती रहेंगी ' और करतारो सुर्खियाँ बनाती रहेंगी ' इक्कीसवीं सदी की नारी - दुर्दशा की वास्तविक कारुणिक कथा हैं जो गहन व्चारना को उत्पन्न करती हैं। परिस्थितियों के प्रति सकारात्मक विरोध दर्ज़ कराती इस खंड की अन्य कविताएँ ,विशेषत: शीर्षक कविता तथा 'द्रौपदी' अशोक लव की जागरुक काव्य-दृष्टि की परिचायक हैं।
'संघर्ष ' खंड की कवितायेँ समक्ष उपस्थित सामाजिक और राजनीतिक परिवेशगत कथ्यों के संसार को सहृदयों के सामने प्रस्तुत करती हैं। इस खंड की सभी कविताएँ ऐसी ही हैं लेकिन 'मारा गया एक और' तथा 'मारा गया एक खास ' लाजवाब हैं,बेमिसाल हैं।
'चिंतन' खंड में जीवन के बहुपक्षीय चिंतन हैं। 'हम दोनों फिर मिले ' का सहज सौंदर्य ध्यातव्य है ।
'प्रेम' खंड की कविताओं में छायावादी सौन्दर्य -अनुभूति के दर्शन होते हैं । 'देह-दीपोत्सव' इस खंड की श्रेष्ठतम कविता कही जा सकती है। यह ऐंद्रिकता से परे प्रार्थना के संसार में ले जाती है। 'दिनकर' का 'काम- अध्यात्म' इस कविता से पुनः स्मृत हो जाता है।
अभिव्यक्ति-पक्ष की बात है, इसमें रचनाकार काम विशेष आग्रह दिखायी नहीं पड़ता। स्वाभाविकता के प्रवाह में अनायास ही शैली ,बिम्ब,अलंकार आदि जो शिल्प -मुक्त-माणिक्य बहते चले आए हैं ,कवि ने उन्हें संजो लिया है । इसी प्रकार उद्देश्य एवं संप्रेषणयीता में सहायक शब्दावली में भाषिक साग्रहता नहीं है। आम बोलचाल,पंजाबी,अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों के साथ ही परिष्कृत संस्कृतगर्भित भाषा भी प्रयुक्त हुई है। ' परम्पराओं के पत्थर ' , ' पसीने की स्याही ' काम रूपक हो या 'संजीवनी का स्पर्श ' में उपमा अलंकार , सब अनायास आए हैं।
' लड़कियाँ छूना चाहती हैं ' की सबसे बड़ी विशेषता इसकी बिम्बात्मकता है। चित्रात्मकता का यह गुण सर्वत्र उपलब्ध है । ' आशीर्वादों की कामधेनु ' में पौराणिक बिम्ब क्या नहीं कह जाता ! 'पसीने की स्याही ' का सामाजिक बिम्ब या फिर ' परम्पराओं के पत्थर ' का सांस्कृतिक बिम्ब दर्शाते हैं कि किस प्रकार अशोक लव ने वातावरण-निर्माण के लिए सर्जनात्मक काल्पनिकता के सार्थक प्रयोग किए हैं ।
इसी क्रम में यदि अप्रस्तुत - विधान की बात की जाए तो सादृश्य - आधृत अप्रस्तुत-विधान के चारों रूप - मूर्त के साथ मूर्त का संयोजन ,मूर्त के साथ अमूर्त का संयोजन , अमूर्त के साथ मूर्त का संयोजन और अमूर्त के साथ अमूर्त का संयोजन , संग्रह में दिखाई देते हैं ।
' लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान ' पठनीय एवं संग्रहणीय कृति है । परिपक्व कृतिकार अशोक लव का यह काव्यात्मक प्रयास सार्थक एवं प्रशंस्य है । यह कविता के दायित्वों को स्पष्ट रेखांकित करने में समर्थ है -

" सूरज के आगे अंधेरों की
कितनी ही चादरें तान लें
कर देता है सूरज उन्हें तार-तार
अपनी रोशनी से;
उन्हें शिकायत है कि
कविता सूरज क्यों है ।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
*समीक्षक :डॉ कंचन छिब्बर ( आगरा )
कवि- अशोक लव ,फ्लैट-३६३,सूर्य अपार्टमेंट ,सेक्टर-६,द्वारका , नई दिल्ली-११००७५ पृष्ठ -११२, मूल्य-१००/रु ,
प्रकाशन-वर्ष : २००८

Saturday, 17 January 2009

नया घर


अशोक लव

फ्लाई-ओवर पर चमकते बल्ब जुगनू से टिमटिमाते दिखते हैं। गहरे काले बादल बल्बों के पार थे। धीरे-धीरे सरकते हुए उन्होंने बल्बों को ढक लिया है। जानता था थोड़ी देर में वे यहाँ तक आ पहुँचेंगे। बरसेंगे। छत पर बैठना सम्भव न रहेगा। फिर भी जितनी देर तक संभव है बैठे रहना चाहता हूँ।

एयर-पोर्ट के रन-वे की बत्तियाँ जगमगाती दिख रही हैं। बादल उस ओर नहीं जा रहे । वायुयान आकाश को छूने के लिए उड़ान नहीं भर रहे और न थक कर विश्राम करने के लिए नीचे उतर रहे हैं। कितनी ख़ामोशी है। हवा को चीर कर उनका उड़ना पूरे वातावरण को कँपा देता है । खिड़कियों के काँच तक झनझना जाते हैं।

यूकिलिप्टस के पेड़ों की कतार साधुओं-सी शान्त तपस्यारत खड़ी हैं। कभी-कभी हवा का भूला-भटका झोंका आ जाता है। तो पेड़ क्षणभर के लिए झूमने लगते हैं। योगासन करते समय ध्यानावस्था तक पहुँचने की प्रक्रिया में देह झूमने लगती है, ठीक वैसे ही। अभी थोड़ी देर में बादल आकर इन्हें खूब झुमाएँगे, पत्तीं की ध्वनि कभी-कभी यूँ लगती है जैसे सर्दियों में नन्ही बालिका को स्कूल जाने के लिए नहलाया जा रहा हो और वह चिल्ला रही हो।

बादल काफी निकट आ गए हैं। दूर हो रही वर्षा साफ़ दिख रही है। हवा चलने लगी है। जल-फुहारों की शीतलता मन को भिगोने लगी है। मन करता है न उठूँ । बैठा रहूँ । भीगता रहूँ । भीगता रहूँ। तन की, मन की सारी तपन भिगो डालूँ। नीचे कमरों में फिर वही घुटन प्रतीक्षा कर रही । भीतर तक आ जाने वाली घुटन !

उद दिन उठ कर नीचे जाने लगा था तो सुनयना ने रोक लिया था, अभी मत जाओ। बैठे रहो। चुपचाप सुनते रहो।

सुनयना !

नीचे उतरते ही घर की एक-एक वस्तु में बसी उसकी गंध से साक्षात्कार होगा। तेज़ बूँदों से बचने के लिए नीचे उतरना ही होगा।

डॉक्टर ने आराम करने के लिए कहा था ! फिर ऊपर चले गए । आप बच्चे तो हैं नहीं जो समझाती रहूँ। बुखार से वैसे ही-कमज़ोर हो गए हैं। अब आराम से लेट जाइए। चाय बना लाऊँ ?” पत्नी के स्वर में प्रेम था, डाँट भी, अधिकार था। उसे चाय बनाने के लिए कह कर लेट गया। सुनयना फिर तैरने लगी।

सुनयना को देखने के लिए लड़के वाले आए थे । हाँ कर गए थे। अनुराग बताने आया था बाहर माँ को बता रहा था। माँ प्रसन्न स्वर में कह रही थी, शुक्र है हाँ हो गई। विमला परेशान भी । और वह सुनयना कह रही थी-मौसी अब और नुमाइश बन कर नही बैठूँगी। लड़कियाँ बेचारी और करें भी तो क्या ? हर दूसरे-चौथे दिन लड़केवालों का जमघट चला आता है। लड़की के दिल पर क्या बीतती है, इसे लड़की ही जानती है। विमला को बोलना बधाई देने आऊँगी।

अनुराग मेरे पास आकर बताने लगा था- लड़का बैंक में अफ़सर है। बड़ी बहन का विवाह हो चुका है। छोटा भाई चार्टेड-अकाउटेण्ड है। पिताजी का बिज़नेस है। माँ देखने में भली लग रही थी।

बहन के रिश्ते से वह बहुत प्रसन्न था। होना भी चाहिए था। लड़कों की तलाश में उसे कितना भटकना पड़ा था। कहीं लड़का अच्छा था तो परिवार ठीक नहीं था। जहाँ परिवार ठीक था, वहाँ लड़का ठीक नहीं था। कभी लड़के वाले मना कर देते थे। सारी भाग-दौड़ वही करता था। पिताजी को कोई चिन्ता न थी।

क्या सो गए ? चाय ले लीजिए। पत्नी के स्वर ने चौंका दिया । चाय पकड़कर वह रसोई में चली गई। रात के भोजन की व्यवस्था जो करनी थी।

सुनयना का रिश्ता पक्का हो जाने पर मुझे भी सुखद लगा था । मौसी कितनी परेशान रहती थी। मुझसे लड़कों के विषय में पूछती। सुनयना सामने होती तो माँ को डॉट देती,मेरे विवाह के अतिरिक्त तुम्हें और कुछ नहीं सूझता ?”

सुनयना को बधाई देने अगले दिन गया था। वह ऊपर अपने स्टडी-रुम में ले गई थी। नीचे बड़ी दीदी और उसके बच्चे आए हुए थे। बहुत शोर हो रहा था।

बैठा सोच रहा था वह अपने भावी पति के विषय में बताएगी । लड़के का काम, माता-पिता, भाई-बहन, परिवार, रिश्तेदार-इन सभी के विषय में बताएगी । यही तो होता है । रिश्ता होते ही लड़कियाँ कितनी प्रसन्नता से सब बताती हैं । पर सुनयना ? वह ख़ामोश बैठी थी । उसकी खामोशी से चिन्ता होने लगी थी । क्या उसे लड़का पसन्द नहीं आया था ? अनुराग के अनुसार तो लड़का और घर-परिवार सभी ठीक थे । ठीक क्या, अच्छे थे । सुनयना ने भी अपनी स्वीकृति दे दी थी । फिर यह खामोशी क्यों थी ?

सुनयना मुझसे दो वर्ष छोटी होगी । पर उसकी गंभीरता ने मुझे उसके समक्ष कभी खुलने नहीं दिया । सदा एक भय-सा बना रहता था । न जाने कैसा ? उसे सदा पुस्तकों में खोए देखता था । सदा प्रथम आती थी । एम.ए. में स्वर्ण पदक मिला था और बी.एड. में विश्वविद्यालय में प्रथम आई थी । उसकी इन उपलब्धियों के समक्ष स्वयं को छोटा पाता था ।

उसे ख़ामोश देख स्वयं पूछा था, इस रिश्ते से क्या प्रसन्न नहीं हो ?”

तुम इस रिश्ते से प्रसन्न हो ?” सुनयना ने पूछा तो चौंक गया था । मैं प्रसन्न क्यों न होता ? घर के सभी सदस्य कितने परेशान थे । हर दसवें-पन्द्रहवें दिन लड़कों का आना, देखना, बात पक्की न होना-मुझे भी बुरा लगता था । सुनयना जैसी सुन्दर, प्रतिभावान, घर-गृहस्थी के कामों में निपुण; पत्नी के रूप में और क्या चाहिए ?

मैंने हँसते हुए कहा, मैं बहुत प्रसन्न हूँ ।

उसके मुख पर उदास मुस्कराहट तैर गई। स्वर में तेज़ी लाते हुए कहने लगी,तुम बड़े हो। बहुत समझदार भी बनते हो एकदम मूर्ख

मूर्ख ? मैंने आज तक ऐसा कुछ नहीं किया था जिससे सुनयना का या उसके परिवार का अपमान हुआ हो। अनुराग को भाई के समान मानता था। उनके रिश्तेदार तो माँ से यहाँ तक कह देते थे, हेमन्त तुम्हारा तीसरा बेटा है। फिर यह मूर्ख कहना ? कुछ समझ नहीं पा रहा था।

मैंने सुनयना की ओर प्रश्न भरी दृष्टि से देखा। वह नीचे देख रही थी। उसने आँखें ऊपर की तो उनमें अश्रु तैर रहे थे। यह स्वाभाविक था। घर छूट जाने की पीड़ा खेलना-कूदना, संग-संग रहना - सभी कुछ छूट जाएगा। सारा जीवन ही बदल जाएगा। लड़कियों का भाग्य भी क्या होता है। जन्म से यौवन-पर्यन्त जिस आँगन में पलती-बढ़ती हैं, वह पराया बन जाता है और पूर्णतया अपरिचित आँगन घर की संज्ञा ले लेता है। सुनयना यही सब सोचकर उदास हो गई होगी।

उसे समझाने लगा।

अब यह भाषण बन्द करो। इतने समय से इतने लड़के वाले आते रहे। मेरी नुमाइश लगती रही। तुम्हें कभी बुरा लगा ? नहीं न इतना साहस तक नहीं हुआ कि मुझे आकर-

वह रो पड़ी।

सुनयना का यह रूप मेर लिए स्तब्ध कर देने वाला था। मैंने उसे कभी इतना कमज़ोर नहीं पाया था। कल्पना तक नहीं की थी कि वह इतनी कमज़ोर भी हो सकती है।

उसने मेरी ओर देखा। उसके नयनों में न जाने-कैसे-कैसे प्रश्न तैर रहे थे ? उसे क्या हो गया था । उसने कुछ कहने का प्रयास किया। शब्द उसके कण्ठ में ही अटके रह गए। रुंधे गले से कहने लगी, तुम में इतना साहस न हुआ कि आकर ढाढस बंधाते और माँ से मेरा हाथ माँग लेते।

उसके शब्द थे या भूकम्प ? भीतर तक काँप गया । क्या कह रही थी। वह ? ऐसा लगा भीतर ज्वालामुखी जग गया है और शब्द लावे के रूप में प्रवाहित हो जाना चाहते हैं।

सुनयना ? यह क्या कह रही थी ? मैंने उसे कभी इस रूप में देखा ही नहीं था। देखा क्या मैं स्वयं को उसके योग्य नहीं समझता था । कहाँ वह ! इतनी गम्भीर, पुस्तकों में खोई। परिवार में सबसे अलग व्यक्तितत्व लिए । स्वयं को उसके समक्ष बहुत छोटा पाता था । योग्यता और आर्थिक दृष्टि से वह बहुत आगे भी । मुझ जैसे नए-नए बने क्लर्क के साथ वह विवाह के विषय में सोच रही थी आश्चर्य तो होना ही था

मेरे जीवन के सारे संघर्ष उसके समक्ष थे। एक-एक दिन इस तरह सोचा ही नहीं था । अनुराग को भाई-सा समझता हूँ। तुम्हें भी-कहते-कहते रुक गया । गला भर आया था।

मैंने इसीलिए कहा था कि तुम मूर्ख हो। तुमने कभी मेरे विषय में सोचा ही नहीं। मैंने कितनी बार कितनी तरह से कहना चाहा। लड़की थी न ! खुलकर कह भी नहीं सकती थी। तुम तो पता नहीं किस संसार में खोए रहते थे। तुमने कभी ध्यान ही नहीं दिया। कभी सोचा ही नहीं। मैं किस-किस तरह, किन-किन बहानों से तुम्हारे निकट आती रही। तुम्हारे घर, तुम्हारे पढ़ते समय, तुम्हारे कॉलेज जाते समय, तुम्हारे बस-स्टॉप पर पहुँचने समय-ध्यान आया ? यहाँ ऊपर यह स्टडी-रूम क्यों बनाया ? क्योंकि सामने तुम्हारी छत थी औक तुम छत पर बैठ कर पढ़ते थे। वह बोलती जा रही थी और मैं अवाक् सुन रहा थी।

विवाह के लिए कितने प्रस्ताव आए। मैंने मना कर दिया था। माँ से यहीं कहती रही, और पढ़ लूँ। क्यों ? तुम्हारे लिए। शायद तुम समझ जाओ। या मैं ही तुमसे कहने का साहस जुटा लूँ । पर दोनों में से कुछ न हो सका। खैर ! हारकर इस रिश्ते के लिए हाँ कर दी। सोचा जब तुम्हारे मन में मेरे प्रति कुछ नही है तो मैं क्यों जबर्दस्ती तुम्हारे जीवन में प्रवेश करूँ। किसी अनजान, अपरिचित के संग जीना लिखा है तो वही सही।

वह बोलती जा रही थी । उसका यह रूप पहली बार देख रहा था। घर में वह किसी से अधिक बातें कहाँ करती थी। खाना बना रही है तो चुपचाप, टी.वी. देख रही है तो चुपचाप, पुस्तकों में खोई है तो चुपचाप। आज उसे क्या हो गया था ? उसे बहुत कुछ कहना चाह रहा था। समझाना चाह रही थी। पर अपनी पारिवारिक परिस्थितियाँ सामने आ जाती थीं। पिताजी थे नहीं। पीछे क्या छोड़ गए थे ? किराए का मकान, चार बच्चे, पत्नी। उत्तरदायित्वों का बोझ। ऐसे में सुनयना को कहाँ ले जाता ? फिर सभी क्या-क्या किस्से बना देते ।

चलो नीचे चलते हैं- मैंने कहा तो उसने डाँट भरे स्वर में कहा,अभी मत जाओ। बैठे रहो। चुपचाप सुनते रहो।

वह और क्या कहेगी ? सभी कुछ तो कह दिया था।

हम दोनों कितनी देर ख़ामोश रहे।

उसने प्रश्न भरी दृष्टि मेरे चेहरे पर गड़ा दी और कहने लगी- तुम में साहस है तो इस रिश्ते के लिए मना कर दूँ ? अभी कुछ विगड़ा नहीं है। मिठाइयों के डिब्बों और कुछ रूपयों का आदान-प्रदान ही तो हुआ है। मेरा सारा जीवन इन डिब्बों और रूपयों से बहुत बड़ा है। बोलो हेमन्त ?”

तुम पागल हो गई हो। भला अब ऐसा हो सकता है ? सब क्या कहेंगे ? चलो ! नीचे चलते हैं- मैं उठ खड़ा हुआ।

मैं जानती थी। तुमसे ऐसे ही उत्तर की अपेक्षा थी। तुम कायर हो हेमन्त ! चलो अच्छा हुआ !मैंने अपने मन की बात कह दी। चलो ! चलें।

सुनयना के घर से दस क़दम का फ़ासला पार कर अपने घर तक पहुँचना कठिन हो गया था। सीधे छत पर जाकर चारपाई पर लेट गया था। न जाने कब तक अश्रु बहते रहे थे !

उठिए ! खाना खा लीजिए। आपको आज हो क्या गया है ? न किसी से बात न चीत, चुपचाप पड़े हैं। ब्लड-प्रेशर तो ठीक है ? कोई प्रॉबलम है तो डॉक्टर को दिखा लो। कहीं रात को परेशान न होना पड़े-पत्नी का स्वर सुन चौंक कर उठ गया । डायनिंग-टेबल पर आ गया। बच्चे प्रतीक्षा कर रहे थे।

टी.वी. चल रहा था। फ़िल्मी गीतों का कोई कार्यक्रम था। अच्छा नहीं लगा । मन में केवल सुनयना तैर रही थी। खाना खाकर सैर के लिए निकलने लगातो पत्नी ने टोक दिया- बारिश का मौसम है। भीग मत जाना । यह छाता ले लो।दरवाजे़ के निकट रखा छाता उठाकर चल पड़ा। हवा की शीतलता से कुछ अच्छा लगा। पैरों के नीचे काली सड़क थी और ऊपर काले बादलों का शामियाना टंगा थी। चारों ओर काली रात भी और मन के भीतर उदासियों की काली गुफ़ाएँ।

सुनयना के विषय में पत्नी से बात करना चाहता था। उसे सब कुछ बता देना चाहता था। एक-एक कर दिन निकल गए थे। नहीं बता सका। भीतर ही भीतर घुटता रहा। और किसे बताऊँ ? पत्नी से वह कितनी घुल-मिल गई थी। पत्नी को बता तो देता पर वह मेरे और सुनयना के विषय में न जाने क्या-क्या सोचने लगती ?

बच्चों के जन्म-दिवस पर, हमारे जन्म-दिवस पर, हमारी विवाह की वर्षगाँठ पर, अन्य तीज-त्योहारों पर वह अवश्य आती। कोई न कोई उपहार अवश्य लाती । घर के प्रत्येक कोने में उसका कोई न कोई उपहार सजा है। नहीं जानता था उसने मुझे लेकर इतने सपने सजा रखे थे। जानता तो उससे बचा फिरता ? विश्वविद्यालय में आती दिखती तो रास्ता बदल लेता था। वह कहीँ वह न सोच ले कि उसके लिए जान-बूझकर उधर से निकला था। घर में आती तो जान-बूझकर छत पर चला जाता या पुस्तकें उठाकर पढ़ने लगता। उसके व्यक्तित्व के समक्ष स्वयं को कितना बौना बना रखा था।

पिताजी थे नहीं। बड़े भैया की कमाई से गुजारा संभव नहीं था । एम.ए. करने की इच्छा का लगा घोंट क्लकीं की नौकरी कर ली थी। एम.ए. करने की इच्छा का गला घोंट क्लर्की की नौकरी कर ली थी । पढ़ने की इच्छा पुनः जीवित हो उठी तो शाम को कॉलेज जाने लगा । नौकरी, पढ़ाई, घर, कुछ बनने के सपने-यही संसार बन गया । इसमें सुनयना कहाँ से आ सकती थी ? आती भी कैसे ? प्रेम, विवाह, घर गृहस्थी जीवन की पुस्तक में ये अध्याय जोड़े ही नहीं थे । सुनयना क्या, किसी को भी जीवन-संगिनी के रूप में देखने की कोंपले मन में फूटी नहीं थीं। बड़े भैया अविवाहित थे । छोटी बहनें थीं ।

उसके मन में ऐसे भाव थे तो वह तो बता सकती थी । कितनी पागल भी वह ! मझे मूर्ख कहा था ? स्वयं क्या थी ?

बहुत दूर निकल आया हूँ । लौटते समय वर्षा न होने लगे ? होती रहे ! छाता कुछ तो बचाएगा । पुलिया पर बैठ जाता हूँ । स्मृतियों के आवरण पहने सुनयना कितने रूपों में सामने आ रही है । विवाह के पश्चात विदा होती सुनयना; पुत्री के जन्म पर चिन्ताजनक स्थिति में सुनयना; कॉपियाँ जाँचती अध्यापिका सुनयना !

सुनयना ! नहीं जानता था। मृत्यु के श्वेत वस्त्रों में चिता पर लेटा तुम्हारा रूप भी देखना पड़ेगा।

एक-एक लकड़ी लाई जा रही थी। न जाने क्यों एक कोने में खड़ा रहा था। मेरे हाथों से उसकी चिता पर रखी लकड़ी, उसकी देह को आँच पहुँचाएगी, ऐसा सोचकर काँप गया था। शायद इसीलिए चुपचाप खड़ा रहा । खड़ा रहा । एक कोने में धरती पर सुनयना चिर-निद्रा में विलीन थी।

सुनयना ! वह सुनयना कहाँ थी ! पंच-तत्वों की देह को सुनयना का रूप देने वाला तत्व न जाने कहाँ विलुप्त हो चुका था। धरती पर लेटी देह तो क्षण भर में अग्नि को समर्पित हो जानी थी । देह, जिसमें सुनयना थी। उस देह की अंतिम यात्रा क्षण भर में आरम्भ हो जानी थी। उस यात्रा के लिए एक-एक लकड़ी चिता का रूप ले रही थी। क्या मुझे स देह की अंतिम-यात्रा में सहयोगी नहीं बनना चाहिए ! सुनयना भी तो यहीं आसपास होगी क्या कहेगी-इस यात्रा में भी पीछे हट गए ! अश्रुपूर्ण मन से चिता पर लकड़ी रख दी। देह को चिता पर रख रदिया गया। सगे-संबंधी एक-एक कर उसके अन्तिम दर्शन कर रहे थे। वहाँ तक जाने का साहस नहीं हो रहा था, बार-बार कह रहा था-एक बार देख लो। भारी कदमों से चिता तक गया था। चिर-परिचित गम्भीर मुद्रा में वह सुनयना ही तो थी ! उसे अपलक निहारता रहा था, कब तक खड़ा रहा था, नहीं जानता ! अचानक ध्यान आया। मुड़ने लगा। न जाने क्यों लगा रुकने के लिए कह रही थी-अमी मत जाओ ! चचुपचाप खड़े रहो !

उसका मुख ढक दिया गया था। चिता को अग्नि देने के लिए कहा जाने लगा। वहाँ खड़े रहने का साहस नहीं हुआ। सुनयना न सही, उसकी देह को अग्नि में जलते कैसे देख सकता था ! कण्ठ से निकलने को लालायित रुलाई को रोकना कितना कष्टप्रद था। अश्रुओं की बाढ़ कहाँ रुक पाई थी। बाहर आ गया था। ख़ामोशियों की वीरानियों को हृदय में समेटे बैठ गया था।

सुनयना यूँ अचानक चली जाएगी, किसने सोचा था ! नहीं जानता था जिन आँखों में कभी सपनों के रूप में जीवित था, वे आँखें अग्नि को समर्पित हो जाएँगी। वह कितना छोटा जीवन लेकर आई थी। छोटी-सी गृहस्थी-असीम प्रेम करने वाला पति, चार वर्ष का पुत्र, दो वर्ष की पुत्री, नया घर ! सब बिखर गया था।

उसने नए घर का कोना-कोना कितने उत्साह से दिखाया था। मैंने मज़ाक में कहा था, मुझसे विवाह किया होता तो मैं तुम्हें इतना भव्य घर नहीं दे पाता। वह हँस पड़ी थी। उसके मुख पर तुरन्त चिरपरिचित गम्भीरता तैरने लगी थी। दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए उसने कहा था,महत्व भव्यता का नही होता, घर का होता है।छोटे से वाक्य न मन को बेध डाला था।

छोटी-सी घटना घटी थी। प्रातः पति के पीछे स्कूटर पर बैठकर स्कूल जा रही थी। कार बगल से टक्कर मार कर ओझल हो गई थी। दोनों गिर गए थे। ऋतेश को अधिक चोटें नहीं आई थीं। बायाँ कँधा और घुटना छिल गए थे। बस ! सुनयना का सिर सड़क से टकराया था। वह बेसुध हो गई थी। ऋतेश उसे अस्पताल ले गया था। उसकी आँखों को दूसरी भोर नहीं देखनी थी। न जाने मृत्युरूपा उस कार का कौन-सा दंश उसे चिर-निद्रा में सुला गया था।

एक दिन पूर्व ही उसे फ़ोन पर पदोन्नति के विषय में बताया था। कितनी प्रसन्न थी। कहने लगी-मिठाई तैयार रखना । पिछली बार प्रमोशन पर दो रसगुल्ले खिलाकर टाल गए थे, इस बार इतने सस्ते में काम नहीं चलेगा।” “सोना-रूपा में दोनों परिवारों के लंच का कार्यक्रम बना था। विधाता ने न जाने क्या कार्यक्रम बना रखा था।

आप भी कमाल करते हैं ! डेढ़ घण्टा हो गया है आपको निकले। ऊपर से वर्षा हो रही है। यहाँ अकेले बैठे भीग रहे हैं। हम घर में चिन्ता कर रहे हैं-पत्नी का स्वर चौंका देता है। अश्रुओं से भरी आँखें उससे छिपाकर पोंछ लेता हूँ। छाता खोलकर उसके साथ घर की ओर चल पड़ता हूँ।

Tuesday, 13 January 2009

कवि-सम्मेलन से नहीं साहित्यकार कृतियों से मूल्याँकन होता है
– अशोक लव
[कवि-कथाकार अशोक लव गत चालीस वर्षों से सक्रिय लेखन कर रहे हैं। उनकी आरंभिक शिक्षा हरियाणा के कैंथल नगर मे हुई। वे हिंदू हाई स्कूल के छात्र थे। इसके पश्चात कुछ वर्ष बिहार में रहे। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए. और बी.एड. की उपाधियाँ ग्रहण की। उन्होंने हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। नेशनल म्यूजि़यम नई दिल्ली से आर्ट एप्रीशीएशन किया। वे विद्यावाचस्पति और विद्यासागर आदि अनेक उपाधियों से अलंकृत हैं- शिखरों से आगे (उपन्यास), सलाम दिल्ली, बंद दरवाजों पर दस्तकें (लघुकथा संग्रह), पत्थरों से बंधे पंख (कहानी संग्रह), अनुभूतियों की आहटें, टूटते चक्रव्यूह (कविता संग्रह), हिंदी के प्रतिनिधि साहित्यकारों के साक्षात्कार, छूना है आसमान (कविता संग्रह, प्रकाशनाधीन), युग नायक महापुरूष, युग प्रवर्तक महापुरूष, प्रेमचंद की लोकप्रिय कहानियाँ, प्रेमचंद की सर्वोत्तम कहानियाँ, चाणक्य नीति, महक, फुलवारी मधु पराग, कदम-कदम आदि। उनकी शैक्षिक पुस्तकें देशभर के विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल कदम-कदम आदि। उनकी शैक्षिक पुस्तकें देशभर के विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं। उन्हें हरियाणा प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन सिरसा द्वारा ‘श्रीमती निर्मला देवी भारद्वाज स्मृति सम्मान’ से सम्मानित किए जाने के अवसर पर लघुकथाकार सत्यप्रकाश भारद्वाज द्वारा उनसे लिया गया साक्षात्कार प्रस्तुत है - संपादक ]
*आपकी पहली रचना कब प्रकाशित हुई ?
सन् 1962-63 में बाल एकांकी के रूप में पटना के महाराष्ट्र मे प्रकाशित हुई थी और दूसरी रचना सन् 1964 मे दिल्ली के समाचार-पत्र ‘वीर अर्जुन’ में प्रकाशित हुई थी। तब से लेखन जारी है।
*आपने प्रायः सभी विद्याओं में लेखन किया है। आपकी विद्या प्रिय कौन-सी है ?
मैंने अधिकांशतः कविताएँ और लघुकथाएँ लिखी हैं। कहानियाँ भी लिखी हैं और उपन्यास तो एक ही लिखा है। साहित्यकार जिस विद्या में लेखन करता है, तन्मय होकर करता है। यह कह पाना कठिन है कि मेरी प्रिय विधा कौन-सी है परन्तु लघुकथा विद्या की स्थापना को लेकर मैंने अनेक गोष्ठियाँ सम्मेलन कराने में सक्रिय योगदान दिया था इसलिए इससे लगाव स्वभाविक है। यही कारण है कि कुछ साहित्यकार मुझे केवल लघुकथाकार के रूप मे जानते हैं। मैं जिन विद्याओं में लिखता हूँ वे मेरी प्रिय विद्याएं हैं।
* आपने कवि सम्मेलनों में भी भाग लिया था। अब क्यों छोड़ दिया ?
कवि सम्मेलनी कवियों की मानसिकता देखकर वितृष्णा हो गई । मंचों पर बड़ी-बड़ी आदर्शों की रचनाएँ पढ़ने वाले कुछ कवि व्यावहारिक जीवन मे निकृष्टतम निकले । कुछ दुकानदारी मानसिकता के निकले। कवि-सम्मेलन जोड़-तोड़ के कवियों के योग्य ही रह गए हैं। बहुत कम कवि ही सम्मानपूर्वक जी रहे हैं। बड़े-बड़े दिग्गजों की मानसिकता देखकर इस ओर से ध्यान हटा ही लिया है। कवि-सम्मेलन वस्तुतः बाज़ारवाद मे बदल गए हैं। अंततः कवि-सम्मेलन से नहीं साहित्यकार कृतियों से मूल्यांकन होता है।
* वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में साहित्य की क्या स्थिति है ?
एक शब्द में कहूँ तो –‘दयनीय’। बाजारवाद, उपभोक्तावाद, वैश्वीकरण जो-जो नाम ले लें, इन सबके प्रभाव ने आज साहित्य को एक कोने में सरका दिया है। साहित्य आत्मा से जुड़ा हुआ था। आज लोगों के पास आत्मा में झाँकने का समय कहाँ है। हर कोई भाग रहा है। छोटे-छोटे कस्बों-शहरों से लेकर महानगरों तक देश भाग रहा है, नए शिखरों को छूने में लगा है। कोई रूके तो साहित्य पढ़े। जो लिख रहे हैं, वही पढ़ रहे हैं। आम पाठक कहाँ है। लोग टीवी के साथ चिपकना पसंद करते हैं। युवा पीढ़ी की रूचियों की सूची में साहित्य नहीं आता ।
* साहित्य के साथ आपका जुड़ाव कैसा हुआ है ?
जीवन का अधिकांश भाग तो साहित्य को दे दिया है । साहित्य मेरे प्राणों में, मेरी आत्मा में बसा है। मुझे इतना मान-सम्मान साहित्य ने दिलाया है। साहित्य ने मेरे व्यक्तित्व का निर्माण किया है। मेरे जीवन-दर्शन को स्वरूप प्रदान किया है। मुझे मनन-चिंतन का बोध कराया है। कभी-कभी सोचना हूँ यदि साहित्य के साथ जुड़ाव न बना होता तो मैं न जाने कैसा व्यक्ति होता। वस्तुतःमैंने साहित्य से जीवन को सही ढंग से जीना सीखा है।
* आपके साहित्यिक जीवन में अविस्मरणीय क्षण कौन से हैं ?
मेरी पुस्तक ‘हिन्दी के प्रतिनिधि साहित्याकारों से साक्षात्कार’ का लोकार्पण व 9 फरवरी 1990 को उपराष्ट्रपति महोदय ने कार्यक्रम के लिए पचास मिनट का समय दिया था। जब कार्यक्रम चला तो 50 मिनट तक तो डॉ. शंकर दयाल शर्मा जी ही भाषण देते रहे थे। कार्यक्रम लगभग डेढ़-दो घंटे तक चला । उनके पीए उन्हें स्मरण दिलाते थे कि मिलने वाले प्रतीक्षा में हैं। तब उन्होंने कहा था, “आज इतने दिनों के पश्चात ऐसा लग रहा है परिवार में बैठकर बातचीत कर रहा हूँ । वह कार्यक्रम था भी ऐतिहासिक । उसमें डॉ. विजेंद्र स्नातक. श्री मन्मथनाथ गुप्त, पद्मश्री यशपाल जैन, पद्मश्री आचार्य, श्रेयचंद्र सुमन, पद्मश्री चिरंजीत, डॉ.नारायण दत्त पालीवाल डॉ. रणवीर रांग्रा, डॉ.गंगाप्रसाद विमल, श्री विनोद कुमार मिश्र (संपादक-दैनिक हिन्दुस्तान) आदि वरिष्ठ साहित्यकार, पत्रकार तो उपस्थित थे ही इनके साथ डॉ. उपेंद्र रैणा, श्रवण राही, अशोक वर्मा, सुरेश गौतम, सुरेश यादव, आरिफ़ जमाल आदि युवा साहित्यकार भी थे। ऐसे क्षण जीवन में बार-बार नहीं आते ।
* युवा साहित्यकारों के लिए आपका क्या संदेश है ?
युवाओं के अनुभवों में अपने समय की गंध होती है। उनमें ताज़गी और उत्साह होता है। उन्हें अपने अनुभवों के आधार पर लिखना चाहिए। वरिष्ठ साहित्यकारों के संपर्क से सीखना चाहिए। श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों या निरंतर अध्ययन करना चाहिए। शनैःशनैः वे श्रेष्ठ लेखन की ओर अग्रसर होते चल जाएंगे। लेखन की श्रेष्ठता निरंतर लेखनरत रहने से आती है। इसे स्मरण रखना चाहिए।