नया घर
अशोक लव
फ्लाई-ओवर पर चमकते बल्ब जुगनू से टिमटिमाते दिखते हैं। गहरे काले बादल बल्बों के पार थे। धीरे-धीरे सरकते हुए उन्होंने बल्बों को ढक लिया है। जानता था थोड़ी देर में वे यहाँ तक आ पहुँचेंगे। बरसेंगे। छत पर बैठना सम्भव न रहेगा। फिर भी जितनी देर तक संभव है बैठे रहना चाहता हूँ।
एयर-पोर्ट के रन-वे की बत्तियाँ जगमगाती दिख रही हैं। बादल उस ओर नहीं जा रहे । वायुयान आकाश को छूने के लिए उड़ान नहीं भर रहे और न थक कर विश्राम करने के लिए नीचे उतर रहे हैं। कितनी ख़ामोशी है। हवा को चीर कर उनका उड़ना पूरे वातावरण को कँपा देता है । खिड़कियों के काँच तक झनझना जाते हैं।
यूकिलिप्टस के पेड़ों की कतार साधुओं-सी शान्त तपस्यारत खड़ी हैं। कभी-कभी हवा का भूला-भटका झोंका आ जाता है। तो पेड़ क्षणभर के लिए झूमने लगते हैं। योगासन करते समय ध्यानावस्था तक पहुँचने की प्रक्रिया में देह झूमने लगती है, ठीक वैसे ही। अभी थोड़ी देर में बादल आकर इन्हें खूब झुमाएँगे, पत्तीं की ध्वनि कभी-कभी यूँ लगती है जैसे सर्दियों में नन्ही बालिका को स्कूल जाने के लिए नहलाया जा रहा हो और वह चिल्ला रही हो।
बादल काफी निकट आ गए हैं। दूर हो रही वर्षा साफ़ दिख रही है। हवा चलने लगी है। जल-फुहारों की शीतलता मन को भिगोने लगी है। मन करता है न उठूँ । बैठा रहूँ । भीगता रहूँ । भीगता रहूँ। तन की, मन की सारी तपन भिगो डालूँ। नीचे कमरों में फिर वही घुटन प्रतीक्षा कर रही । भीतर तक आ जाने वाली घुटन !
उद दिन उठ कर नीचे जाने लगा था तो सुनयना ने रोक लिया था, “अभी मत जाओ। बैठे रहो। चुपचाप सुनते रहो।”
सुनयना !
नीचे उतरते ही घर की एक-एक वस्तु में बसी उसकी गंध से साक्षात्कार होगा। तेज़ बूँदों से बचने के लिए नीचे उतरना ही होगा।
“डॉक्टर ने आराम करने के लिए कहा था ! फिर ऊपर चले गए । आप बच्चे तो हैं नहीं जो समझाती रहूँ। बुखार से वैसे ही-कमज़ोर हो गए हैं। अब आराम से लेट जाइए। चाय बना लाऊँ ?” पत्नी के स्वर में प्रेम था, डाँट भी, अधिकार था। उसे चाय बनाने के लिए कह कर लेट गया। सुनयना फिर तैरने लगी।
सुनयना को देखने के लिए लड़के वाले आए थे । हाँ कर गए थे। अनुराग बताने आया था बाहर माँ को बता रहा था। माँ प्रसन्न स्वर में कह रही थी, “शुक्र है हाँ हो गई। विमला परेशान भी । और वह सुनयना कह रही थी-मौसी अब और नुमाइश बन कर नही बैठूँगी। लड़कियाँ बेचारी और करें भी तो क्या ? हर दूसरे-चौथे दिन लड़केवालों का जमघट चला आता है। लड़की के दिल पर क्या बीतती है, इसे लड़की ही जानती है। विमला को बोलना बधाई देने आऊँगी।”
अनुराग मेरे पास आकर बताने लगा था- लड़का बैंक में अफ़सर है। बड़ी बहन का विवाह हो चुका है। छोटा भाई चार्टेड-अकाउटेण्ड है। पिताजी का बिज़नेस है। माँ देखने में भली लग रही थी।
बहन के रिश्ते से वह बहुत प्रसन्न था। होना भी चाहिए था। लड़कों की तलाश में उसे कितना भटकना पड़ा था। कहीं लड़का अच्छा था तो परिवार ठीक नहीं था। जहाँ परिवार ठीक था, वहाँ लड़का ठीक नहीं था। कभी लड़के वाले मना कर देते थे। सारी भाग-दौड़ वही करता था। पिताजी को कोई चिन्ता न थी।
“क्या सो गए ? चाय ले लीजिए।” पत्नी के स्वर ने चौंका दिया । चाय पकड़कर वह रसोई में चली गई। रात के भोजन की व्यवस्था जो करनी थी।
सुनयना का रिश्ता पक्का हो जाने पर मुझे भी सुखद लगा था । मौसी कितनी परेशान रहती थी। मुझसे लड़कों के विषय में पूछती। सुनयना सामने होती तो माँ को डॉट देती, “मेरे विवाह के अतिरिक्त तुम्हें और कुछ नहीं सूझता ?”
सुनयना को बधाई देने अगले दिन गया था। वह ऊपर अपने स्टडी-रुम में ले गई थी। नीचे बड़ी दीदी और उसके बच्चे आए हुए थे। बहुत शोर हो रहा था।
बैठा सोच रहा था वह अपने भावी पति के विषय में बताएगी । लड़के का काम, माता-पिता, भाई-बहन, परिवार, रिश्तेदार-इन सभी के विषय में बताएगी । यही तो होता है । रिश्ता होते ही लड़कियाँ कितनी प्रसन्नता से सब बताती हैं । पर सुनयना ? वह ख़ामोश बैठी थी । उसकी खामोशी से चिन्ता होने लगी थी । क्या उसे लड़का पसन्द नहीं आया था ? अनुराग के अनुसार तो लड़का और घर-परिवार सभी ठीक थे । ठीक क्या, अच्छे थे । सुनयना ने भी अपनी स्वीकृति दे दी थी । फिर यह खामोशी क्यों थी ?
सुनयना मुझसे दो वर्ष छोटी होगी । पर उसकी गंभीरता ने मुझे उसके समक्ष कभी खुलने नहीं दिया । सदा एक भय-सा बना रहता था । न जाने कैसा ? उसे सदा पुस्तकों में खोए देखता था । सदा प्रथम आती थी । एम.ए. में स्वर्ण पदक मिला था और बी.एड. में विश्वविद्यालय में प्रथम आई थी । उसकी इन उपलब्धियों के समक्ष स्वयं को छोटा पाता था ।
उसे ख़ामोश देख स्वयं पूछा था, “इस रिश्ते से क्या प्रसन्न नहीं हो ?”
“तुम इस रिश्ते से प्रसन्न हो ?” सुनयना ने पूछा तो चौंक गया था । मैं प्रसन्न क्यों न होता ? घर के सभी सदस्य कितने परेशान थे । हर दसवें-पन्द्रहवें दिन लड़कों का आना, देखना, बात पक्की न होना-मुझे भी बुरा लगता था । सुनयना जैसी सुन्दर, प्रतिभावान, घर-गृहस्थी के कामों में निपुण; पत्नी के रूप में और क्या चाहिए ?
मैंने हँसते हुए कहा, “मैं बहुत प्रसन्न हूँ ।”
उसके मुख पर उदास मुस्कराहट तैर गई। स्वर में तेज़ी लाते हुए कहने लगी, “तुम बड़े हो। बहुत समझदार भी बनते हो एकदम मूर्ख”
मूर्ख ? मैंने आज तक ऐसा कुछ नहीं किया था जिससे सुनयना का या उसके परिवार का अपमान हुआ हो। अनुराग को भाई के समान मानता था। उनके रिश्तेदार तो माँ से यहाँ तक कह देते थे, “हेमन्त तुम्हारा तीसरा बेटा है।” फिर यह मूर्ख कहना ? कुछ समझ नहीं पा रहा था।
मैंने सुनयना की ओर प्रश्न भरी दृष्टि से देखा। वह नीचे देख रही थी। उसने आँखें ऊपर की तो उनमें अश्रु तैर रहे थे। यह स्वाभाविक था। घर छूट जाने की पीड़ा खेलना-कूदना, संग-संग रहना - सभी कुछ छूट जाएगा। सारा जीवन ही बदल जाएगा। लड़कियों का भाग्य भी क्या होता है। जन्म से यौवन-पर्यन्त जिस आँगन में पलती-बढ़ती हैं, वह पराया बन जाता है और पूर्णतया अपरिचित आँगन घर की संज्ञा ले लेता है। सुनयना यही सब सोचकर उदास हो गई होगी।
उसे समझाने लगा।
“अब यह भाषण बन्द करो। इतने समय से इतने लड़के वाले आते रहे। मेरी नुमाइश लगती रही। तुम्हें कभी बुरा लगा ? नहीं न इतना साहस तक नहीं हुआ कि मुझे आकर-
वह रो पड़ी।
सुनयना का यह रूप मेर लिए स्तब्ध कर देने वाला था। मैंने उसे कभी इतना कमज़ोर नहीं पाया था। कल्पना तक नहीं की थी कि वह इतनी कमज़ोर भी हो सकती है।
उसने मेरी ओर देखा। उसके नयनों में न जाने-कैसे-कैसे प्रश्न तैर रहे थे ? उसे क्या हो गया था । उसने कुछ कहने का प्रयास किया। शब्द उसके कण्ठ में ही अटके रह गए। रुंधे गले से कहने लगी, “तुम में इतना साहस न हुआ कि आकर ढाढस बंधाते और माँ से मेरा हाथ माँग लेते।
उसके शब्द थे या भूकम्प ? भीतर तक काँप गया । क्या कह रही थी। वह ? ऐसा लगा भीतर ज्वालामुखी जग गया है और शब्द लावे के रूप में प्रवाहित हो जाना चाहते हैं।
सुनयना ? यह क्या कह रही थी ? मैंने उसे कभी इस रूप में देखा ही नहीं था। देखा क्या मैं स्वयं को उसके योग्य नहीं समझता था । कहाँ वह ! इतनी गम्भीर, पुस्तकों में खोई। परिवार में सबसे अलग व्यक्तितत्व लिए । स्वयं को उसके समक्ष बहुत छोटा पाता था । योग्यता और आर्थिक दृष्टि से वह बहुत आगे भी । मुझ जैसे नए-नए बने क्लर्क के साथ वह विवाह के विषय में सोच रही थी आश्चर्य तो होना ही था ।
मेरे जीवन के सारे संघर्ष उसके समक्ष थे। एक-एक दिन इस तरह सोचा ही नहीं था । अनुराग को भाई-सा समझता हूँ। तुम्हें भी-” कहते-कहते रुक गया । गला भर आया था।
“मैंने इसीलिए कहा था कि तुम मूर्ख हो। तुमने कभी मेरे विषय में सोचा ही नहीं। मैंने कितनी बार कितनी तरह से कहना चाहा। लड़की थी न ! खुलकर कह भी नहीं सकती थी। तुम तो पता नहीं किस संसार में खोए रहते थे। तुमने कभी ध्यान ही नहीं दिया। कभी सोचा ही नहीं। मैं किस-किस तरह, किन-किन बहानों से तुम्हारे निकट आती रही। तुम्हारे घर, तुम्हारे पढ़ते समय, तुम्हारे कॉलेज जाते समय, तुम्हारे बस-स्टॉप पर पहुँचने समय-ध्यान आया ? यहाँ ऊपर यह स्टडी-रूम क्यों बनाया ? क्योंकि सामने तुम्हारी छत थी औक तुम छत पर बैठ कर पढ़ते थे।” वह बोलती जा रही थी और मैं अवाक् सुन रहा थी।
“विवाह के लिए कितने प्रस्ताव आए। मैंने मना कर दिया था। माँ से यहीं कहती रही, और पढ़ लूँ। क्यों ? तुम्हारे लिए। शायद तुम समझ जाओ। या मैं ही तुमसे कहने का साहस जुटा लूँ । पर दोनों में से कुछ न हो सका। खैर ! हारकर इस रिश्ते के लिए हाँ कर दी। सोचा जब तुम्हारे मन में मेरे प्रति कुछ नही है तो मैं क्यों जबर्दस्ती तुम्हारे जीवन में प्रवेश करूँ। किसी अनजान, अपरिचित के संग जीना लिखा है तो वही सही।”
वह बोलती जा रही थी । उसका यह रूप पहली बार देख रहा था। घर में वह किसी से अधिक बातें कहाँ करती थी। खाना बना रही है तो चुपचाप, टी.वी. देख रही है तो चुपचाप, पुस्तकों में खोई है तो चुपचाप। आज उसे क्या हो गया था ? उसे बहुत कुछ कहना चाह रहा था। समझाना चाह रही थी। पर अपनी पारिवारिक परिस्थितियाँ सामने आ जाती थीं। पिताजी थे नहीं। पीछे क्या छोड़ गए थे ? किराए का मकान, चार बच्चे, पत्नी। उत्तरदायित्वों का बोझ। ऐसे में सुनयना को कहाँ ले जाता ? फिर सभी क्या-क्या किस्से बना देते ।
“चलो नीचे चलते हैं”- मैंने कहा तो उसने डाँट भरे स्वर में कहा, “अभी मत जाओ। बैठे रहो। चुपचाप सुनते रहो।”
वह और क्या कहेगी ? सभी कुछ तो कह दिया था।
हम दोनों कितनी देर ख़ामोश रहे।
उसने प्रश्न भरी दृष्टि मेरे चेहरे पर गड़ा दी और कहने लगी- “तुम में साहस है तो इस रिश्ते के लिए मना कर दूँ ? अभी कुछ विगड़ा नहीं है। मिठाइयों के डिब्बों और कुछ रूपयों का आदान-प्रदान ही तो हुआ है। मेरा सारा जीवन इन डिब्बों और रूपयों से बहुत बड़ा है। बोलो हेमन्त ?”
“तुम पागल हो गई हो। भला अब ऐसा हो सकता है ? सब क्या कहेंगे ? चलो ! नीचे चलते हैं- मैं उठ खड़ा हुआ।
“मैं जानती थी। तुमसे ऐसे ही उत्तर की अपेक्षा थी। तुम कायर हो हेमन्त ! चलो अच्छा हुआ !मैंने अपने मन की बात कह दी। चलो ! चलें।”
सुनयना के घर से दस क़दम का फ़ासला पार कर अपने घर तक पहुँचना कठिन हो गया था। सीधे छत पर जाकर चारपाई पर लेट गया था। न जाने कब तक अश्रु बहते रहे थे !
“उठिए ! खाना खा लीजिए। आपको आज हो क्या गया है ? न किसी से बात न चीत, चुपचाप पड़े हैं। ब्लड-प्रेशर तो ठीक है ? कोई प्रॉबलम है तो डॉक्टर को दिखा लो। कहीं रात को परेशान न होना पड़े-” पत्नी का स्वर सुन चौंक कर उठ गया । डायनिंग-टेबल पर आ गया। बच्चे प्रतीक्षा कर रहे थे।
टी.वी. चल रहा था। फ़िल्मी गीतों का कोई कार्यक्रम था। अच्छा नहीं लगा । मन में केवल सुनयना तैर रही थी। खाना खाकर सैर के लिए निकलने लगातो पत्नी ने टोक दिया- “बारिश का मौसम है। भीग मत जाना । यह छाता ले लो।” दरवाजे़ के निकट रखा छाता उठाकर चल पड़ा। हवा की शीतलता से कुछ अच्छा लगा। पैरों के नीचे काली सड़क थी और ऊपर काले बादलों का शामियाना टंगा थी। चारों ओर काली रात भी और मन के भीतर उदासियों की काली गुफ़ाएँ।
सुनयना के विषय में पत्नी से बात करना चाहता था। उसे सब कुछ बता देना चाहता था। एक-एक कर दिन निकल गए थे। नहीं बता सका। भीतर ही भीतर घुटता रहा। और किसे बताऊँ ? पत्नी से वह कितनी घुल-मिल गई थी। पत्नी को बता तो देता पर वह मेरे और सुनयना के विषय में न जाने क्या-क्या सोचने लगती ?
बच्चों के जन्म-दिवस पर, हमारे जन्म-दिवस पर, हमारी विवाह की वर्षगाँठ पर, अन्य तीज-त्योहारों पर वह अवश्य आती। कोई न कोई उपहार अवश्य लाती । घर के प्रत्येक कोने में उसका कोई न कोई उपहार सजा है। नहीं जानता था उसने मुझे लेकर इतने सपने सजा रखे थे। जानता तो उससे बचा फिरता ? विश्वविद्यालय में आती दिखती तो रास्ता बदल लेता था। वह कहीँ वह न सोच ले कि उसके लिए जान-बूझकर उधर से निकला था। घर में आती तो जान-बूझकर छत पर चला जाता या पुस्तकें उठाकर पढ़ने लगता। उसके व्यक्तित्व के समक्ष स्वयं को कितना बौना बना रखा था।
पिताजी थे नहीं। बड़े भैया की कमाई से गुजारा संभव नहीं था । एम.ए. करने की इच्छा का लगा घोंट क्लकीं की नौकरी कर ली थी। एम.ए. करने की इच्छा का गला घोंट क्लर्की की नौकरी कर ली थी । पढ़ने की इच्छा पुनः जीवित हो उठी तो शाम को कॉलेज जाने लगा । नौकरी, पढ़ाई, घर, कुछ बनने के सपने-यही संसार बन गया । इसमें सुनयना कहाँ से आ सकती थी ? आती भी कैसे ? प्रेम, विवाह, घर – गृहस्थी जीवन की पुस्तक में ये अध्याय जोड़े ही नहीं थे । सुनयना क्या, किसी को भी जीवन-संगिनी के रूप में देखने की कोंपले मन में फूटी नहीं थीं। बड़े भैया अविवाहित थे । छोटी बहनें थीं ।
उसके मन में ऐसे भाव थे तो वह तो बता सकती थी । कितनी पागल भी वह ! मझे मूर्ख कहा था ? स्वयं क्या थी ?
बहुत दूर निकल आया हूँ । लौटते समय वर्षा न होने लगे ? होती रहे ! छाता कुछ तो बचाएगा । पुलिया पर बैठ जाता हूँ । स्मृतियों के आवरण पहने सुनयना कितने रूपों में सामने आ रही है । विवाह के पश्चात विदा होती सुनयना; पुत्री के जन्म पर चिन्ताजनक स्थिति में सुनयना; कॉपियाँ जाँचती अध्यापिका सुनयना !
सुनयना ! नहीं जानता था। मृत्यु के श्वेत वस्त्रों में चिता पर लेटा तुम्हारा रूप भी देखना पड़ेगा।
एक-एक लकड़ी लाई जा रही थी। न जाने क्यों एक कोने में खड़ा रहा था। मेरे हाथों से उसकी चिता पर रखी लकड़ी, उसकी देह को आँच पहुँचाएगी, ऐसा सोचकर काँप गया था। शायद इसीलिए चुपचाप खड़ा रहा । खड़ा रहा । एक कोने में धरती पर सुनयना चिर-निद्रा में विलीन थी।
सुनयना ! वह सुनयना कहाँ थी ! पंच-तत्वों की देह को सुनयना का रूप देने वाला तत्व न जाने कहाँ विलुप्त हो चुका था। धरती पर लेटी देह तो क्षण भर में अग्नि को समर्पित हो जानी थी । देह, जिसमें सुनयना थी। उस देह की अंतिम यात्रा क्षण भर में आरम्भ हो जानी थी। उस यात्रा के लिए एक-एक लकड़ी चिता का रूप ले रही थी। क्या मुझे स देह की अंतिम-यात्रा में सहयोगी नहीं बनना चाहिए ! सुनयना भी तो यहीं आसपास होगी क्या कहेगी-इस यात्रा में भी पीछे हट गए ! अश्रुपूर्ण मन से चिता पर लकड़ी रख दी। देह को चिता पर रख रदिया गया। सगे-संबंधी एक-एक कर उसके अन्तिम दर्शन कर रहे थे। वहाँ तक जाने का साहस नहीं हो रहा था, बार-बार कह रहा था-एक बार देख लो। भारी कदमों से चिता तक गया था। चिर-परिचित गम्भीर मुद्रा में वह सुनयना ही तो थी ! उसे अपलक निहारता रहा था, कब तक खड़ा रहा था, नहीं जानता ! अचानक ध्यान आया। मुड़ने लगा। न जाने क्यों लगा रुकने के लिए कह रही थी-अमी मत जाओ ! चचुपचाप खड़े रहो !
उसका मुख ढक दिया गया था। चिता को अग्नि देने के लिए कहा जाने लगा। वहाँ खड़े रहने का साहस नहीं हुआ। सुनयना न सही, उसकी देह को अग्नि में जलते कैसे देख सकता था ! कण्ठ से निकलने को लालायित रुलाई को रोकना कितना कष्टप्रद था। अश्रुओं की बाढ़ कहाँ रुक पाई थी। बाहर आ गया था। ख़ामोशियों की वीरानियों को हृदय में समेटे बैठ गया था।
सुनयना यूँ अचानक चली जाएगी, किसने सोचा था ! नहीं जानता था जिन आँखों में कभी सपनों के रूप में जीवित था, वे आँखें अग्नि को समर्पित हो जाएँगी। वह कितना छोटा जीवन लेकर आई थी। छोटी-सी गृहस्थी-असीम प्रेम करने वाला पति, चार वर्ष का पुत्र, दो वर्ष की पुत्री, नया घर ! सब बिखर गया था।
उसने नए घर का कोना-कोना कितने उत्साह से दिखाया था। मैंने मज़ाक में कहा था, “मुझसे विवाह किया होता तो मैं तुम्हें इतना भव्य घर नहीं दे पाता।” वह हँस पड़ी थी। उसके मुख पर तुरन्त चिरपरिचित गम्भीरता तैरने लगी थी। दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए उसने कहा था, “महत्व भव्यता का नही होता, घर का होता है।” छोटे से वाक्य न मन को बेध डाला था।
छोटी-सी घटना घटी थी। प्रातः पति के पीछे स्कूटर पर बैठकर स्कूल जा रही थी। कार बगल से टक्कर मार कर ओझल हो गई थी। दोनों गिर गए थे। ऋतेश को अधिक चोटें नहीं आई थीं। बायाँ कँधा और घुटना छिल गए थे। बस ! सुनयना का सिर सड़क से टकराया था। वह बेसुध हो गई थी। ऋतेश उसे अस्पताल ले गया था। उसकी आँखों को दूसरी भोर नहीं देखनी थी। न जाने मृत्युरूपा उस कार का कौन-सा दंश उसे चिर-निद्रा में सुला गया था।
एक दिन पूर्व ही उसे फ़ोन पर पदोन्नति के विषय में बताया था। कितनी प्रसन्न थी। कहने लगी-“मिठाई तैयार रखना । पिछली बार प्रमोशन पर दो रसगुल्ले खिलाकर टाल गए थे, इस बार इतने सस्ते में काम नहीं चलेगा।” “सोना-रूपा” में दोनों परिवारों के लंच का कार्यक्रम बना था। विधाता ने न जाने क्या कार्यक्रम बना रखा था।
“आप भी कमाल करते हैं ! डेढ़ घण्टा हो गया है आपको निकले। ऊपर से वर्षा हो रही है। यहाँ अकेले बैठे भीग रहे हैं। हम घर में चिन्ता कर रहे हैं” -पत्नी का स्वर चौंका देता है। अश्रुओं से भरी आँखें उससे छिपाकर पोंछ लेता हूँ। छाता खोलकर उसके साथ घर की ओर चल पड़ता हूँ।
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