Wednesday, 23 September 2009

पीरागढ़ी में बसा कश्मीर / अशोक लव

पीरागढ़ी चौक के बगल में
सोया है शरणार्थी बना
झुलसा कश्मीर ।

कश्मीर के लिए
नेता कर आते हैं यात्राएँ
घूम-घूम आते हैं देश-देश ,
कागज़ों पर दौड़ा आते हैं कश्मीर
लौटकर मखमली बिस्तरों में सो जाते हैं।

पीरागढ़ी के तम्बुओं को चीरती हैं सर्द हवाएँ
कंपकंपा देती हैं
पीरागढ़ी के तम्बुओं में घुस जाती हैं गर्म हवाएँ
झुलसा देती हैं
हवाएँ नहीं देखती बाल,युवा, वृद्ध देहें
सब पर कहर बरपाती रहती हैं।

किसे फुर्सत है पीरागढ़ी आने की?
किसे है फुर्सत पीरागढ़ी की खबरें छापने की ?
संसद में नहीं घूमती पीरागढ़ी
अख़बारों में नहीं छपती पीरागढ़ी
कविताओं में नहीं आती पीरागढ़ी।

कंपकंपाती देहों के संग
झुलसी देहों के संग
निकलता है पीरागढ़ी के तम्बुओं से कश्मीर
घूम आता है राजनीति के गलियारों में
खटखटा आता है सांसदों के द्वार
सब बहरे बन जाते हैं
कोई नहीं सुनता कश्मीर की आवाज़
जागी आँखों से सब देखते हैं कश्मीर को
कोई नहीं रोककर पूछता
उसके ज़ख्मों का हाल।

जिनकी देह पर खालों की परतें जमी होती हैं
जिनकी देहों पर बुलेट-प्रूफ़ कसे होते हैं
जिन्हें नहीं झुलसा पाती गर्म हवाएँ
उन्हें कश्मीर के ज़ख्मों की पीड़ाओं का क्या पता!

लौट आता है पीरागढ़ी के तम्बुओं में
शरणार्थी कश्मीर,
कच्ची गलियों में बहते गंदे पानी में-
डल झील के सपने देखता ,
पीरागढ़ी के फ्लाईओवर की ऊँचाई में-
गुलमर्ग की पहाड़ियों को देखता
कश्मीर!
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पुस्तक-लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान
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