औरतें गौरव हैं
औरतें हैं लज्जा
औरतें हैं शील
स्वाभिमान
औरतें औरतें नहीं हैं
औरतें हैं संस्कृति
औरतें हैं सभ्यता
औरतें मनुष्यता हैं
देवत्व की संभावनाएँ हैं औरतें
ऋषभदेव शर्मा की इस कविता ’औरतें औरतें नहीं!’ को सुनकर पहले पहल तो हम चौंकते हैं लेकिन ध्यान देने पर कवि का यह मंतव्य स्पष्ट होता है कि स्त्री न तो मनोरंजन का साधन है और न ही बाज़ार की वस्तु. वे उन मूल्यों को सहेज कर रखती है जिनसे मनुष्यता के संस्कार का निर्माण होता है. यही कारण है कि स्त्रियाँ किसी देश की मर्यादा और संस्कृति का पर्याय होती हैं. लज्जा,शील,अस्मिता,आजादी,स्वाभिमान,सभ्यता,संस्कृति,मनुष्यता -और यहाँ तक कि मनुष्य के भीतर निहित देवत्व की संभावना को स्त्री के स्त्रीत्व में निहित माना गया है. वह श्रद्धा और विश्वास की मूर्ती है. लेकिन सामाजिक दबावों ने उसे ’अबला ’ बनाकर रख दिया. लोकतांत्रिक व्यवस्था का तकाजा है कि स्त्री को इस अबलापन से मुक्त किए जाए और उसका सशक्त रूप आनेवाली पीढ़ियों के सामने उभर कर आए.
साहित्य समाज की आलोचना है. सामंती संस्कारवाले साहित्य के शुरुआती दौर में नारी की निंदात्मक और प्रशंसात्मक दोनों दशाओं का चित्रण मिलता है. मध्यकालीन साहित्य में स्त्री के प्रति वैराग्यजनित कुंठाओं का चित्रण हुआ है. भोगवादी दौर में तो स्त्री विलासिता का केंद्र बन गई. आधुनिक काल में स्त्री अपने अस्तित्व एवं अस्मिता के प्रति जागरूक हुई. यही कारण है कि प्राचीन और मध्य्कालीन साहित्य की तुलना में आज की हिंदी कविता में स्त्री की छवि बदली हुई है. आज के हिंदी कवियों एवं कवयित्रियों ने स्त्री के हर रूप को,उसके दिल की हर धड़कन को बारीकी से उकेरा है.
सदियों से यही रीति चली आ रही है कि घर-बार और बच्चे संभालना ही औरत का काम है. सामाजिक मर्यादाओं एवं पारिवारिक मूल्यों का बचाव भी औरत की ही जिम्मेदारी है. बेटी,बहन,प्रेयसी,बहू,पत्नी और माँ की जिम्मेदारी निभाते-निभाते वह खुद को भूल गई है. कविता वाचक्नवी की कविता ’माँ बूढ़ी है ’ में मातृत्व का जीवंत पक्ष दिखाई देता है -दिन भर भागा करती /चिंतित /इसे खिलाती,उसे मनाती /दो पल का भी चैन नहीं था /तब इअस माँ को, /अब फुर्सत में खाली बैठी /पल-पल काटे /पास नहीं पर अब कोई भी. /फुर्सत बेमानी लगती है /अपना होना भी बेमानी /अपने बच्चों में अनजानी /माँ बूढ़ी है." (मैं चल तो दूँ ; कविता वाचक्नवी ;’माँ बूढ़ी है ’;पृ.२३)
माँ की ममता की कोई मिसाल नहीं होती. माँ की ममता को ठीक तरह से वही जान पाता है जो माँ के रिश्ते की गहराई जनता है.माँ की ममता जब स्वयं से होकर गुजरती है तब माँ की याद अपने आप तरोताजा हो जाती है - " माँ! /तुम्हारी लोरी नहीं सुनी मैंने, /कभी गाई होगी /याद नहीं /फिर भी /जाने कैसे /मेरे कंठ से /तुम झरती हो /मेरा मस्तक /सूँघा अवश्य होगा तुमने /मेरी माँ! /ध्यान नहीं पड़ता /परंतु /मेरे रोम-रोम से /तुम्हारी कस्तूरी फूटती है."( मैं चल तो दूँ ; कविता वाचक्नवी ;’माँ बूढ़ी है ’;पृ.२५)
कविता वाचक्नवी की कविताओं में मातृत्व की अनुपमेयता अत्यंत स्पष्ट है. कवयित्री बार-बार माँ को याद करती हैं- " माँ! /यदी तुम होती, /ऊँची भट्ठियों में दहकती आग का धुआँ /गिरने देती मेरे आँगन में? /सारे विकराल स्वपनों में घिर /सुबकने और चौंक कँपने देतीं मुझे?"(मैं चल तो दूँ ; कविता वाचक्नवी ;’माँ,यदि तुम होती... ’;पृ.१६१)
हमारा समाज मूलतः पितृसत्तात्मक समाज है. एक ओर स्त्री की पूजा की जाती है और दूसरी ओर उसे जिंदा जलाया जाता है. जहाँ लड़की का जन्म अवांछित या ’गले पड़ा ढोल ’ समझा जाता है वहाँ अहम मुद्दा नारी के अस्तित्व का है.लैंगिक भेदभाव के कारण कन्या भ्रूण हत्या आम बात हो गई है. कन्या भ्रूण हत्या की बढ़ती हुई घटनाएँ एक ऐसी विभीषिका है जिसने मानव विकास की यात्रा पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है. आधुनिक जीवन शैली की इस विसंगति ने मानव अस्तित्व और अस्मिता को ही झकझोर कर रख दिया है. कवयित्री कविता वाचक्नवी ने ऐसी वर्जित और बेसहारा बेटियों के आर्त्नाद को अपनी कविता ’बिटियाएँ ’ के माध्यम से सशक्त रूप में सुनाया है -"पिता! /अभी जीना चाहती थीं हम /यह क्या किया... /हमारी अर्थियाँ उठवा दीं! /अपनी विरक्ति के निभाव की /सारी पगबाधाएँ हटवा दीं...!! /***अब कैसे तो आएँ /तुम्हारे पास? /अर्थियाँ उठे लोग(दीख पड़ें तो) / ’भूत’ हो जाते हैं /बहुत सताते हैं. /*** हम हैं-भूत /-अतीत /समय के /वर्तमान में वर्जित.../विड़ंबनाएँ.../बिटियाएँ..."(मैं चल तो दूँ;कविता वाचक्नवी;’बिटियाएँ’;पृ.१३०)
वास्तव में,हमारे परंपराग्रस्त समाज में बेटी की डोली भी अर्थी की तरह ही उठती है और उसकी तैयारी बेटी के जन्म से होने लगती है. विवाह के साथ जैसे बोझ उतर जाता है. बेटी को बोझ मानने की मानसिकता के कारण ही उनकी हत्या भ्रूण दशा में करने का दुष्कर्म आरंभ हुआ होगा.
इसी प्रकार जया महता ने कन्या भ्रूण से कहलवाया है कि -"रोक सके तो रोक बिस्तर पर पड़े हुए की कराह /पोंछ सके तो पोंछों मृत शिशु की माँ के आँसू /*** उसने कहा, /रोक सके तो रोको /शिशुओं को क़त्ल करते अश्वत्थामाओं को /शिष्य का अँगूठा माँगते द्रोणाचार्यों को /अणुश्स्त्र बनाती उँगलियों को /*** नहीं कर सकते न कुछ /तो भला मुझे किस लिए रोकते हो इस तरह! /मैं तो हूँ माँ के पेट में पलती कन्या /मैंने तो अभी तक दुनिया देखी भी नहीं..."(जया मेहता;समकालीन भारताय साहित्य;मार्च-अप्रैल २००९,पृ.५१)
माँ-बाप के लिए लड़की का ब्याह चिंताजनक विषय है. कविता वाचक्नवी ने उम्रदराज लड़कियों की बेबसी को अपनी कविता ’लड़की’ में उकेरा है -"अक्सर बुदबुदाती /एक उमरदराज लड़की /*** ज्योतिषियों के तंत्र सारे /रटे गए मंत्र सारे /नवग्रह दशाएँ /भाग्य विधाता कंकर-शंकर /साथ नहीं देते अक्सर /उन सारी लड़कियों का /छ्ली जाती हैं जो वक्त से /छले जाती हैं आप ही को जो /और बेतहाशा भाग्ती हैं /दर्द से बेहाल होकर /किसी दुलार भरे क्षण की याद में /मिटाए जाती हैं /अस्तित्व का कण-कण /बूँद-बूँद बन, /प्यास की भरपाई में."(मैं चल तो दूँ ; कविता वाचक्नवी;’लड़की’;पृ.१४)
भूमंड़लीकरण के साथ ’उपभोक्तावादी संस्कृति’ व ’बाज़ार संस्कृति’ का विकास हुआ. इसने आज स्त्री की छवि को बदल दिया है. महिला साहित्यकार प्रभा खेतान का मानना है कि ’भूमंड़लीकरण के हाशिए पर स्त्री मनुष्य नहीं मात्र एक देह,एक उत्पाद तथा एक ब्रांड बन गई है. टी.वी.चैनलों और किसी फैशन मैगज़ीन की कवर पेज अथवा पेज थ्री की चमक-दमक सनसनी बनती जा रही है."(अमित कुमार सिंह;भूमंड़लीकरण और भारत:परिदृश्य और विकलप;पृ.१८२)
बाज़ार स्त्री की सुनहरी छवि का अपने लाभ के लिए भरपूर इस्तेमाल करता है. बदलते जीवन मूल्यों के साथ प्रेम का स्वरूप भी बदला है. प्रेम में बिखराव और छिछलापन आ गया है. समाज में वेश्यावृत्ती दिन-ब-दिन बढ़ रही है. कई बेबस और अभावग्रस्त स्त्रियों को मजबूरी से इस व्यवसाय की ओर मुड़ना पड़ रहा था. देह व्यापार,लड़कियों की ट्रेफिकिंग या यौन दास्ता आम बात हो रही है. पुरुष कैसे कभी-कभार इन स्त्रियों के रूप में बाज़ार की चाट का स्वाद लेना चाहता है, मानिक बच्छावत की कविता ’पेशेवालियाँ’ इस नग्न सत्य को उजागर करती है - "जैसे मछुआ बाज़ार की फल-मंड़ी से /कोई लबालब भरकर /फल बेचने के लिए ले जाता है टोकरियाँ /ठीक वैसे ही इन /स्त्री शरीरों को भरकर /रोज़ /चितरंजन एवन्यू से /बहुत सारी टैक्सियाँ निकलती हैं /अपने दलालों के साथ."(मानिक बच्छावत;’पेशेवालियाँ’;नया ज्ञानोदय;मई २००९;पृ.७५)
कोई भी स्त्री जन्मतः वेश्या पैदा नहीं होती बल्कि परिस्थितियों के कारण उसे इस व्य्वसाय को अपनाना पड़ता है. उदभ्रांत की कविता ’तवायफ़’ इसी सत्य को उजागर करती है -"क्या एक तवायफ़ /जिस्म का सौदा करते समय /करती है आत्मा की भी? /क्या एक तवायफ़ जानती है /कि वह पैदा नहीं हुई /उसे बनाया गया समाज के /उच्च पदासीन /पर्दानशीन /सभ्य कहे जाते /धर्म के ठेकेदारों द्वारा ही?" (उदभ्रांत ; ’तवायफ़’ प्रगतिशील वसुधा-६९;पृ.४५)
परंपरागत रूढ़ियों और अंधविश्वासों के विरुद्ध विजय हासिल करना ही आज की स्त्री का स्वप्न है. वेश्या भी एक स्त्री है. वह भी अपने अधूरे सपनों को पूर करन चाहती है- "आनंदी /सबको आनंद देती है /अपना धर्म निभाती है /हँसती-गाती है /ग्राहकों का मन बहलाती है /जब अकेली होती है तो रोने लग जाती है /अधूरे सपनों में /खो जाती है."(मानिक बच्छावत;’आनंदी’;नया ज्ञानोदय;मई २००९;पृ.७५)
आज स्त्री जागरूक हो गई है. अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है. पुरुषपक्षीय परंपराओं को तोड़ना सीख गई है. अशोक लव कहते हैं- "लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान /परंतु उनके पंखों पर बाँध दिए गए हैं /परंपराओं के पत्थर /ताकि वे उड़ान न भर सकें /और कहीं छून न लें आसमान /*** लड़कियाँ अपने रक्त से लिख रही हैं /नए गीत /वे पसीने की स्याही में डुबोकर देहें /रच रहीं हैं नए ग्रंथ /उन्होंने सीख लिया है /पुरुषपक्षीय परंपराओं को चिथड़े-चिथड़े करना /उन्होंने कर लिया है निश्चय /बदलने का अर्थों को, /इन तमाम ग्रंथों में रचित /लड़कियों विरोधी गीतों का /जिन्हें रचा था पुरुषों ने /अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए."(अशोक लव;’लड़कियाँ छूना चाहती हैं’;साहित्य सुमन,जुलाई-सितंबर,२००८;पृ.६०)
पुरुषों के हाथों कठपुतली बनकर स्त्री खूब नाच चुकी है. पुरुष द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा को लांघकर स्त्री अपना एक सपनों का संसार रचना चाहती है. लेकिन उसे हर कदम पर धोखा ही मिलता है. ऋषभदेव शर्मा की कविता ’इतिहास हंता मैं’ इसकी साक्षी है- "मैं घर से निकल आई थी /तुम्हें पाने को! /मैंने धरम की दीवार गिराई थी, /तुम्हें पाने को, /अपने पिता से आँख मिलाई थी /भाई से ज़बान लड़ाई थी- /तुम्हें पाने को! /माँ अपनी कोख नाखूनों से नोचती रह गई, /पिता ने जीते जी मेरा श्राद्ध कर दिया; /मैंने मुडकर नहीं देखा /मैं अपना इतिहास जलाकर आई थी- /तुम्हें पाने को! /तुमने मुझे नया नाम दिया /मैंने स्वीकार किया, /तुमने मुझे नया मज़हब दिया- /मैंने अंगीकार किया. /वैसे ये शब्द उतने ही निर्थक थे /जितने मेरा जला हुआ अतीत /***और सो गई थी /थककर चकनाचूर /आँख खुली तो तुम्हारी दाढ़ी उग आई थी, /तुम हिजाब कहकर /मेरे ऊपर कफ़न डाल रहे थे. /***मैं देख्ती रह गई; /तुमने मुझे जिंदा कब्र में गाड़ दिया! /एक बार फिर /सब कुछ जलाना होगा- /मुझे /खुद को पाने को!!"
ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में भी स्त्री को पग-पग पर अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है. घर की दहलीज पार करके जहाँ स्त्री समाज में पुरुषों से कदम मिलाकर आगे चल रही है वहीं उसे जिल्ल्त भी उठानी पड़ रही है. ऋषभदेव शर्मा ने अपनी कविता ’प्रशस्तियाँ’ के माध्यम से इस बात को स्पष्ट किया है- "मैंने जब भी कुछ पाया /मर खप कर पाया /खट खट कर पाया /अग्नि की धार पर गुज़र कर पाया /पाने की खुशी /लेकिन कभी नहीं पाई /***शिक्षा हो या व्यवसाय /प्रसिद्धि हो य पुरस्कार /हर बार उन्होंने यही कहा- /चर्म-मुद्रा चल गई! /[चर्म-चर्वणा से परे वे कभी गए ही नहीं!]
*प्रस्तुतकर्ता गुर्रमकोंडा नीरजा पर सोमवार, ७ सितम्बर २००९
ब्लॉग - 'सागरिका' से साभार