कुछ लोग जीते हैं
गलतफहमी में
उन्हें यही लगता है कि
बस वही हैं
और बस वही हैं ,
सूर्य -से -
केन्द्र -बिंदु बने हैं ,
घूमते हैं ग्रहों -से लोग
उनके चारों ओर।
प्रकाश- पुंज
सूर्य - सा कहाँ है उनके पास !
उन्हें बस गलतफहमी है कि वे
सूर्य हैं
क्योंकि उनके पास सत्ता है।
चाटुकारों के चरण-चुम्बनों ने
उनमें रावणत्व जगा दिया है,
वे नहीं जानते कि रावण कहाँ रहा
जो वे रहेंगे ।
उन्हें गलतफहमी में जीते देखकर
मुस्कराते हैं
वास्तविकता को जानने वाले।
काश!
वे उतार पाते सूर्य - सा प्रकाश- पुंज
मन में
तब हो जाते उदार सूर्य- से।
Monday, 29 September 2008
Thursday, 25 September 2008
मोहयालों का इतिहास
मोहयाल ब्राहमण योद्धा ब्राहमणों के रूप में प्रसिद्ध हैं । अफगानिस्तान , अविभाजित भारत के पकिस्तान में चले गए अनेक भागों, जम्मू , कश्मीर और अविभाजित पंजाब (पाकिस्तान में चला गया पंजाब, वर्तमान पंजाब ,हिमाचल प्रदेश,हरयाणा,दिल्ली ) में इनका शासन था। मोहयाल रामायण काल में महाराजा दशरथ के कुल-गुरु ऋषि वशिष्ठ , भृगु ऋषि के वंशज योद्धा-ब्राहमण परशुराम ; महाभारत - काल में गुरु द्रोणाचार्य आदि को अपने पूर्वज मानते हैं।
मोहयालों की सात जातियाँ हैं--बाली ( गोत्र पाराशर , ऋषि पराशर के वंशज) ; भीमवाल ( गोत्र कौशल ,कौशल ऋषि के वंशज) ; छिब्बर (गोत्र भृगु /भार्गव ,भृगु ऋषि के वंशज ) ; दत्त (दत्ता) (गोत्र भारद्वाज , भरद्वाज ऋषि के वंशज ) ; लौ (लव) (गोत्र वशिष्ठ,वशिष्ठ ऋषि के वंशज) ; मोहन ( गोत्र कश्यप ,स्त्रक्च्य स्त्रक्य के वंशज ) ; वैद ( वैद्य ) (गोत्र भारद्वाज , धनवंतरी के वंशज ) ।
मोहयालों के इतिहास पर उर्दू और इंगलिश में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं । हिस्ट्री ऑफ़ दी मुहियाल्स ( लेखक -टी पी रुसेल stracy )
मोहयालों की सात जातियाँ हैं--बाली ( गोत्र पाराशर , ऋषि पराशर के वंशज) ; भीमवाल ( गोत्र कौशल ,कौशल ऋषि के वंशज) ; छिब्बर (गोत्र भृगु /भार्गव ,भृगु ऋषि के वंशज ) ; दत्त (दत्ता) (गोत्र भारद्वाज , भरद्वाज ऋषि के वंशज ) ; लौ (लव) (गोत्र वशिष्ठ,वशिष्ठ ऋषि के वंशज) ; मोहन ( गोत्र कश्यप ,स्त्रक्च्य स्त्रक्य के वंशज ) ; वैद ( वैद्य ) (गोत्र भारद्वाज , धनवंतरी के वंशज ) ।
मोहयालों के इतिहास पर उर्दू और इंगलिश में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं । हिस्ट्री ऑफ़ दी मुहियाल्स ( लेखक -टी पी रुसेल stracy )
Wednesday, 17 September 2008
* नई पुस्तक : डॉ नीना छिब्बर का कविता- संग्रह "आकांक्षा की ओर "
सीधी बातें करती कविताएँ
__________________*अशोक लव
कविताएँ जीवन के अनुभवों की , भावनाओं की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति हैं। मन जितनी कल्पनाएँ कर सकता है , भावनाएं अनुभूतियों को जितनी गहनता से अनुभव करती हैं , कविता के स्वर उतने ही प्रभावशाली बनकर अभिव्यक्त होते हैं। कविता सीधे हृदय से संचरित होती है,हृदय के तारोंकी सुरमय अभिव्यक्ति कविता है। कवि के हृदय के भाव जितने गहन होते हैं , कविता उतनी गहन होती है।
डॉ नीना छिब्बर की कविताओं से गुज़रते समय यही लगा की कवयित्री ने जीवन - यात्रा के क्षण-क्षण जीवन्तता से जिए हैं। अनुभवों को संवेदनाओं के साथ शब्दों के आवरण में लपेटा है। यूँ अनुभव करना,भावनात्मक स्तर पर जीना पूर्णतया भिन्न होता है। कवयित्री ने इनमें सामंजस्य का प्रयास किया है।
" आकांक्षा की ओर " की कविताओं में कवयित्री की भिन्न भावों की कविताएँ संकलित हैं। लेखन से जुड़े उन्हें दशक से अधिक से अधिक हो गया है। प्रकाशन की दिशा में यह उनकी प्रथम कृति है। उनकी लेखन प्रतिभा का परिचय मुझे संपादक के रूप में हुआ था। "मोहयाल मित्र " पत्रिका का संपादन करते दो दशक से अधिक हो गए हैं । इसके लिए उनकी रचनाएँ आने लगीं तो लगा की इस लेखिका / कवयित्री में गाम्भीर्य है। भावों को कलमबद्ध करने की क्षमता है। उनकी अनेक रचनाएँ प्रकाशित कीं। इसी के साथ उनके साथ संपर्क हुआ और संबंधों में पारिवारिकता आती चली गई।
उनकी कविताएँ सहज हैं। एकदमआम बोलचाल की भाषा में लिखी गई हैं। कहीं दुरूहता नहीं है। साहित्यिक मानदंडों के संसार से दूर डॉ नीना छिब्बर जो अनुभव करती हैं उसे सहजता से कविता का रूप देती चली जाती हैं। इसलिए इनमें विषय-वैविध्य है। प्रेम है तो संघर्ष भी है। हृदय पक्ष प्रबल है तो कहीं बुद्धि का आश्रय लेती भी दिखाई देती हैं।
आए हो तुम यह कहा जब किसी ने
आँखें भर आईं मुद्दत के बाद
विरहाग्नि में दग्ध कवयित्री का हृदय मिलन की अनुभूति मात्र से सिहरित हो उठता है और अश्रु आंखों को भिगो देते हैं। 'मुद्दत के बाद ' श्रृंगार रस की श्रेष्ठ कविता है। 'प्रतीक्षा' में भी कवयित्री प्रेम भाव में डूबी है। कलियाँ, बादल, बिजली, धरती, आकाश- इन प्रतीकों के माध्यम से कवयित्री अपनी विरह वेदना अभिव्यक्त करती है। प्रियतम के आने के संदेश की प्रतीक्षा करते हुए वे कहती हैं-
इस मौसम में ठंडी लहरों जैसी बरखा
मुझको छूकर तेरे प्रणय का संदेश दे जाती है
तभी तो कब से खिड़की पर बैठी करती हूँ प्रतीक्षा।
कवयित्री ने माँ ,बेटियों और नारियों पर श्रेष्ठ कविताएँ लिखी हैं । इनके माध्यम से नारी के जीवन का संघर्ष उभरकर आया है। स्वयं नारी और माँ होने के कारण इन कविताओं के स्वर विशिष्टता लिए हैं। 'बेटियाँ' कविता की ये पंक्तियाँ -
बेटियाँ होती हैं छुई- मुई का पौधा
जो स्पर्श ही नहीं , नज़रों की चमक से शरमा जाती हैं
अथवा
बूढी माँ अपनी आंखों से रात भर
खून और जल के आंसू पीती है।
इनमें एक ओर ममत्व छलकता है तो दूसरी ओर वृद्धा की पीडाएं मन को भिगो देती हैं।
कवयित्री की रचनाएँ उनके कवित्व की संभावनाएं समेटे हैं। हिन्दी साहित्य को समर्पित यह उनका प्रथम पुष्प कवि-हृदयों को सुगन्धित करेगा। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं। आशा है वे निरंतर सृजनरत रहेंगी और हिन्दी साहित्य को श्रेष्ठ कृतियों से समृद्ध करेंगी। **
* डॉ नीना छिब्बर , ६५३/ ,चौपासनी हाऊसिंग बोर्ड , जोधपुर (राज )
फ़ोन 0291-2712798
__________________*अशोक लव
कविताएँ जीवन के अनुभवों की , भावनाओं की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति हैं। मन जितनी कल्पनाएँ कर सकता है , भावनाएं अनुभूतियों को जितनी गहनता से अनुभव करती हैं , कविता के स्वर उतने ही प्रभावशाली बनकर अभिव्यक्त होते हैं। कविता सीधे हृदय से संचरित होती है,हृदय के तारोंकी सुरमय अभिव्यक्ति कविता है। कवि के हृदय के भाव जितने गहन होते हैं , कविता उतनी गहन होती है।
डॉ नीना छिब्बर की कविताओं से गुज़रते समय यही लगा की कवयित्री ने जीवन - यात्रा के क्षण-क्षण जीवन्तता से जिए हैं। अनुभवों को संवेदनाओं के साथ शब्दों के आवरण में लपेटा है। यूँ अनुभव करना,भावनात्मक स्तर पर जीना पूर्णतया भिन्न होता है। कवयित्री ने इनमें सामंजस्य का प्रयास किया है।
" आकांक्षा की ओर " की कविताओं में कवयित्री की भिन्न भावों की कविताएँ संकलित हैं। लेखन से जुड़े उन्हें दशक से अधिक से अधिक हो गया है। प्रकाशन की दिशा में यह उनकी प्रथम कृति है। उनकी लेखन प्रतिभा का परिचय मुझे संपादक के रूप में हुआ था। "मोहयाल मित्र " पत्रिका का संपादन करते दो दशक से अधिक हो गए हैं । इसके लिए उनकी रचनाएँ आने लगीं तो लगा की इस लेखिका / कवयित्री में गाम्भीर्य है। भावों को कलमबद्ध करने की क्षमता है। उनकी अनेक रचनाएँ प्रकाशित कीं। इसी के साथ उनके साथ संपर्क हुआ और संबंधों में पारिवारिकता आती चली गई।
उनकी कविताएँ सहज हैं। एकदमआम बोलचाल की भाषा में लिखी गई हैं। कहीं दुरूहता नहीं है। साहित्यिक मानदंडों के संसार से दूर डॉ नीना छिब्बर जो अनुभव करती हैं उसे सहजता से कविता का रूप देती चली जाती हैं। इसलिए इनमें विषय-वैविध्य है। प्रेम है तो संघर्ष भी है। हृदय पक्ष प्रबल है तो कहीं बुद्धि का आश्रय लेती भी दिखाई देती हैं।
आए हो तुम यह कहा जब किसी ने
आँखें भर आईं मुद्दत के बाद
विरहाग्नि में दग्ध कवयित्री का हृदय मिलन की अनुभूति मात्र से सिहरित हो उठता है और अश्रु आंखों को भिगो देते हैं। 'मुद्दत के बाद ' श्रृंगार रस की श्रेष्ठ कविता है। 'प्रतीक्षा' में भी कवयित्री प्रेम भाव में डूबी है। कलियाँ, बादल, बिजली, धरती, आकाश- इन प्रतीकों के माध्यम से कवयित्री अपनी विरह वेदना अभिव्यक्त करती है। प्रियतम के आने के संदेश की प्रतीक्षा करते हुए वे कहती हैं-
इस मौसम में ठंडी लहरों जैसी बरखा
मुझको छूकर तेरे प्रणय का संदेश दे जाती है
तभी तो कब से खिड़की पर बैठी करती हूँ प्रतीक्षा।
कवयित्री ने माँ ,बेटियों और नारियों पर श्रेष्ठ कविताएँ लिखी हैं । इनके माध्यम से नारी के जीवन का संघर्ष उभरकर आया है। स्वयं नारी और माँ होने के कारण इन कविताओं के स्वर विशिष्टता लिए हैं। 'बेटियाँ' कविता की ये पंक्तियाँ -
बेटियाँ होती हैं छुई- मुई का पौधा
जो स्पर्श ही नहीं , नज़रों की चमक से शरमा जाती हैं
अथवा
बूढी माँ अपनी आंखों से रात भर
खून और जल के आंसू पीती है।
इनमें एक ओर ममत्व छलकता है तो दूसरी ओर वृद्धा की पीडाएं मन को भिगो देती हैं।
कवयित्री की रचनाएँ उनके कवित्व की संभावनाएं समेटे हैं। हिन्दी साहित्य को समर्पित यह उनका प्रथम पुष्प कवि-हृदयों को सुगन्धित करेगा। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं। आशा है वे निरंतर सृजनरत रहेंगी और हिन्दी साहित्य को श्रेष्ठ कृतियों से समृद्ध करेंगी। **
* डॉ नीना छिब्बर , ६५३/ ,चौपासनी हाऊसिंग बोर्ड , जोधपुर (राज )
फ़ोन 0291-2712798
Tuesday, 16 September 2008
स्व श्रवण राही : मुक्तकों के राजकुमार
साहित्य के क्षेत्र में हमारी सहयात्रा २५ वर्ष से अधिक की रही। दिल्ली छावनी के सुब्रोतो पार्क में हम निकट ही रहते थे। वे एयर फ़ोर्स में ऑडिटर थे और हम एयर फ़ोर्स स्कूल में हिन्दी -संस्कृत विभागाध्यक्ष थे। हर शाम साथ-साथ सैर पर निकलते और साहित्यिक चर्चाएँ करते। वे मधुर कंठ के धनी गीतकार थे। कई कवि-सम्मेलनों में एक साथ कविता-पाठ किया था। अनेक गोष्ठियों का आयोजन किया था। वे "सुमंगलम" संस्था के अध्यक्ष थे और हम महासचिव थे।
२२ मार्च २००८ ( होली के दिन ) शाम को दिल्ली के उत्तम नगर में कवि-सम्मेलन से लौटते समय हार्ट अटैक हुआ और पुत्र दुष्यंत राही के स्कूटर के पीछे बैठे-बैठे ही उनका निधन हो गया। ऐसे परम प्रिय मित्र का विछोह आजीवन सालता रहेगा ।
वे लिखते थे और मैं उनकी रचनाओं का पहला श्रोता होता था। मेरी जितनी पुस्तकें प्रकाशित हुईं उनकी पहली प्रति हमेशा उन्हें ही भेंट की थी।
अभी तक विशवास नहीं होता कि हमारे संग नहीं हैं। १३ सितम्बर को उनकी स्मृति में "सुपथगा " की ओर से उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
ऐसे सरल सहज व्यक्तित्व को विनम्रता पूर्वक उनके प्रसिद्ध मुक्तकों के साथ स्मरण करते हुए श्रद्धा -सुमन अर्पित हैं।
*गर्द में भी खिले हम गुलों की तरह
दर्द में भी हँसे बुलबुलों की तरह
हम अमर गीत की भांति हो जायंगे
लोग मिट जायेंगे चुटकलों की तरह।
*रोशनी पर अंधेरों के पहरे हुए
ज़ख्म जितने सिले उतने गहरे हुए
पीर की बांसुरी क्या सुनेंगे भला
लोग शहनाइयां सुनके बहरे हुए।
*प्रेम के गीत लिख व्याकरण पर न जा
मन की पीड़ा समझ आचरण पर न जा
मेरा मन कोई गीता से कम तो नहीं
खोलकर पृष्ट पढ़ आवरण पर न जा।
*बागबान से गुलों की सिफारिश न कर
अपने रहमो करम की यूँ बारिश न कर
माँगने की मुझे दोस्त आदत नहीं
मौत से ज़िंदगी की सिफारिश न कर।
*स्व श्रवण राही के गीतों और मुक्तकों का संग्रह "आस्थाओं के पथ "१९९५ में प्रकाशित हुआ था। इसकी भूमिका "श्रवण राही : शब्दों एवं भावों को जीवन्तता प्रदान करने वाले कवि " लिखने का सौभाग्य हमें मिला.
@सर्वाधिकार सुरक्षित : अशोक लव
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
Monday, 15 September 2008
मेरी चर्चित लघुकथाएँ : मृत्यु की आहट *
*यह लघुकथा अनेक लघुकथा-संग्रहों में संकलित है। पाठ्य - पुस्तकों में पढाई जा रही है। मेरे लघुकथा -संग्रह "सलाम दिल्ली" से--
राजधानी का पश्चिम क्षेत्र धमाकों से गूँज उठा। रसोई-गैस के सिलेंडर पटाखों के समान फट-फटकर आसमान में उड़ने लगे। उनके टुकड़े साथ लगे गली-मौहल्लों में गिरने लगे। पूरे क्षेत्र में कोहराम मच गया। लोग छतों पर चढ़कर दूर लगी आग को देखने लगे। बात ही बात में ख़बर फैल गई कि विशाल टैंकों में भरी रसोई-गैस को भी आग लग गई है। दस-बारह किलोमीटर तक सब स्वाहा हो जायेगा ।
अभी तक रसोई-गैस के सिलेंडरों का उड़ना लोगों के लिए एक तमाशा था। अब तमाशा मौत बन गया। लोग घर-बार छोड़कर भागने लगे। स्त्रियों ने धन-गहने ही संभाले। सभी जल्दी से जल्दी मौत के दायरे से बाहर निकल जाना चाहते थे।
नरेन्द्र अपने मित्र के घर राजौरी गार्डन गया हुआ था। आग लगने का समाचार सुन मोटरसायकिल दौडाता आया । जल्दी-जल्दी पत्नी और दोनों बच्चों को पीछे बिठाया। मोटरसायकिल स्टार्ट करने ही वाला था कि माँ रोती-चिल्लाती आई - " बेटे !मुझे भी साथ ले चल। यहाँ ज़िंदा जलने के लिए मत छोड़ जा।"
नरेन्द्र ने मोटरसायकिल स्टार्ट करते हुए कहा-"इन्हें छोड़कर अभी आता हूँ। आकर तुम्हें ले जाऊंगा। "
देखते ही देखते मोटरसायकिल आंखों से ओझल हो गया। माँ अवाक दहलीज पर खड़ी देखती रही। फिर आँगन में आकर आग के रूप में आती मृत्यु की आहट सुनने लगी। उसकी आंखों के सामने वैधव्य और नन्हें नरेन्द्र को जवानी तक पहुंचाने के कष्टप्रद दिनों के अनेक चित्र घूम गए। आंखों से अश्रुओं की धाराएं फूटती चली गईं ।
अचानक गली में शोर मचा। आग पर दमकलवालों ने नियंत्रण पा लिया था। गैस से भरे विशाल टैंकों तक आग पहुँची ही नहीं थी। माँ ने तटस्थ भाव से जीवन को लौट आते महसूस किया।
तभी मोटरसायकिल रुकने की आवाज़ आई । नरेन्द्र पत्नी और बच्चों के साथ घर में दाखिल हो रहा था। माँ की आंखों से दो बूँद अश्रु निकलकर लुढ़क गए। वह उठकर अपनी कोठरी की ओर बढ़ गई। *
@सर्वाधिकार सुरक्षित
राजधानी का पश्चिम क्षेत्र धमाकों से गूँज उठा। रसोई-गैस के सिलेंडर पटाखों के समान फट-फटकर आसमान में उड़ने लगे। उनके टुकड़े साथ लगे गली-मौहल्लों में गिरने लगे। पूरे क्षेत्र में कोहराम मच गया। लोग छतों पर चढ़कर दूर लगी आग को देखने लगे। बात ही बात में ख़बर फैल गई कि विशाल टैंकों में भरी रसोई-गैस को भी आग लग गई है। दस-बारह किलोमीटर तक सब स्वाहा हो जायेगा ।
अभी तक रसोई-गैस के सिलेंडरों का उड़ना लोगों के लिए एक तमाशा था। अब तमाशा मौत बन गया। लोग घर-बार छोड़कर भागने लगे। स्त्रियों ने धन-गहने ही संभाले। सभी जल्दी से जल्दी मौत के दायरे से बाहर निकल जाना चाहते थे।
नरेन्द्र अपने मित्र के घर राजौरी गार्डन गया हुआ था। आग लगने का समाचार सुन मोटरसायकिल दौडाता आया । जल्दी-जल्दी पत्नी और दोनों बच्चों को पीछे बिठाया। मोटरसायकिल स्टार्ट करने ही वाला था कि माँ रोती-चिल्लाती आई - " बेटे !मुझे भी साथ ले चल। यहाँ ज़िंदा जलने के लिए मत छोड़ जा।"
नरेन्द्र ने मोटरसायकिल स्टार्ट करते हुए कहा-"इन्हें छोड़कर अभी आता हूँ। आकर तुम्हें ले जाऊंगा। "
देखते ही देखते मोटरसायकिल आंखों से ओझल हो गया। माँ अवाक दहलीज पर खड़ी देखती रही। फिर आँगन में आकर आग के रूप में आती मृत्यु की आहट सुनने लगी। उसकी आंखों के सामने वैधव्य और नन्हें नरेन्द्र को जवानी तक पहुंचाने के कष्टप्रद दिनों के अनेक चित्र घूम गए। आंखों से अश्रुओं की धाराएं फूटती चली गईं ।
अचानक गली में शोर मचा। आग पर दमकलवालों ने नियंत्रण पा लिया था। गैस से भरे विशाल टैंकों तक आग पहुँची ही नहीं थी। माँ ने तटस्थ भाव से जीवन को लौट आते महसूस किया।
तभी मोटरसायकिल रुकने की आवाज़ आई । नरेन्द्र पत्नी और बच्चों के साथ घर में दाखिल हो रहा था। माँ की आंखों से दो बूँद अश्रु निकलकर लुढ़क गए। वह उठकर अपनी कोठरी की ओर बढ़ गई। *
@सर्वाधिकार सुरक्षित
Sunday, 14 September 2008
मधुर गीतकार श्रवण राही :स्मृतियाँ
१३ सितम्बर २००८ को साहित्य अकादमी सभागार (नई दिल्ली ) में " सुपथगा " संस्था की ओर से स्वर्गीय श्रवण राही की स्मृति में "काव्य - रसधार " कार्यक्रम का आयोजन किया गया। डॉ शेरजंग गर्ग की अध्यक्षता में आयोजित कार्यक्रम में मेरे अतिरिक्त लक्ष्मी शंकर वाजपई और असीम शुक्ल मुख्य वक्ता थे। श्रीमती ममता किरण, डॉ श्याम निर्मम, राजगोपाल सिंह , डॉ राजेंद्र गौतम और सुरेश यादव ने कवि के रूप में भाग लिया। नरेन्द्र लाहड़ ,महासचिव -सुपथगा और दुष्यंत राही (सुपुत्र स्व.श्रवण राही ) ने समारोह का आयोजन किया । इस अवसर पर सुपथगा का " श्रवण राही विशेषांक" फोल्डर रूप में प्रकाशित किया गया जिसका लोकार्पण मुख्य - अतिथि डॉ परमानन्द पांचाल ने किया।वरिष्ट कवि सत्यनारायाण एवं डॉ नरेन्द्र व्यास विशिष्ट - अतिथि थे ।
विनोद बब्बर (सं -राष्ट्र किंकर ), आरिफ जमाल (सं- न्यू ऑब्ज़र्वर पोस्ट), किशोर श्रीवास्तव ( सं -हम सब साथ - साथ), ॐ सपरा ( साहित्य सं - मित्र संगम पत्रिका) , जगदीश त्रयम्बक (सं- राष्ट्रीय लोकमानस ), सुषमा भंडारी ,मनोहर लाल रत्नम, परवेज़ ,सत्यदेव हरयाणवी , मुसाफिर देहलवी, काका , चिराग जैन, शंभू शेखर ,जीतेन्द्र आदि साहित्यकारों और पत्रकारों की उपस्थिति उल्लेखनीय थी।
सबने स्व श्रवण राही के प्रति भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित की।*
* स्व श्रवण राही पर संस्मरण शीघ्र .
विनोद बब्बर (सं -राष्ट्र किंकर ), आरिफ जमाल (सं- न्यू ऑब्ज़र्वर पोस्ट), किशोर श्रीवास्तव ( सं -हम सब साथ - साथ), ॐ सपरा ( साहित्य सं - मित्र संगम पत्रिका) , जगदीश त्रयम्बक (सं- राष्ट्रीय लोकमानस ), सुषमा भंडारी ,मनोहर लाल रत्नम, परवेज़ ,सत्यदेव हरयाणवी , मुसाफिर देहलवी, काका , चिराग जैन, शंभू शेखर ,जीतेन्द्र आदि साहित्यकारों और पत्रकारों की उपस्थिति उल्लेखनीय थी।
सबने स्व श्रवण राही के प्रति भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित की।*
* स्व श्रवण राही पर संस्मरण शीघ्र .
Thursday, 11 September 2008
माँ और कविता / अशोक लव
एक कविता है जिसे मैं जीता हूँ एक कविता है जिसे माँ जीती है
हमारी अपनी- अपनी कविताएँ हैं ।
मेरी कविता में शब्द हैं
जन्म लेने से पूर्व
अंतस के भावों को जीकर आते हैं शब्द
भाव- सागर में डूबकर आते हैं शब्द
जितना मुटठियों में भर पाता हूँ
उतने रूप धारण करते हैं शब्द
मेरी कविता बनते हैं शब्द
बहुत अच्छी लगती हैं मुझे अपनी कविताएँ ।
एक कविता माँ के आसपास
वः उसे जीती है
माँ की कविता में शब्द नहीं हैं
माँ की कविता कागजों पर नहीं उतरती
माँ रचती है ज़िंदा कविताएँ ।
माँ की देह से सर्जित देहें
उसकी कविताएँ
बहुत अच्छी लगती हैं
माँ को अपनी कविताएँ ।
महीनों सहेजकर रखा था माँ ने उन्हें
अपनी कोख में
मुस्काई थी माँ उनके संग
खेली थी माँ उनके संग
दुलारती- पुचकारती रही माँ
अपनी कविताओं को ।
बूडा गई है माँ अब
तलाशते हैं उसके कांपते हाथ
अपनी कविताओं को
न जाने कौन -सी हवा
ले गई है बहाकर उसकी कविताएँ ?
सुनाता हूँ माँ को अपनी कविताएँ
वह अपलक ताकती है
पता नहीं समझ आती हैं या नहीं
शब्दों से सर्जित मेरी कविताएँ
माँ को?
वह फेरती है सर पर हाथ
नहीं कहती है कुछ भी
भर लेती है हथेलियों में मुख,
बोलती कुछ भी नहीं।
भावातुर हो बह आती है
उसकी आंखों से स्नेह- नदी
डूब-डूब जाता हूँ उस नदी में।
माँ की कविता में शब्द नहीं हैं
शब्दों की कविताएँ
नहीं कर पाती स्पर्श
माँ की कविताओं का ,
काश! हम माँ-सी कविताएँ लिख पाते।
(*पुस्तक : लडकियां छूना चाहती हैं आसमान )
*सर्वाधिकार अशोक लव
हमारी अपनी- अपनी कविताएँ हैं ।
मेरी कविता में शब्द हैं
जन्म लेने से पूर्व
अंतस के भावों को जीकर आते हैं शब्द
भाव- सागर में डूबकर आते हैं शब्द
जितना मुटठियों में भर पाता हूँ
उतने रूप धारण करते हैं शब्द
मेरी कविता बनते हैं शब्द
बहुत अच्छी लगती हैं मुझे अपनी कविताएँ ।
एक कविता माँ के आसपास
वः उसे जीती है
माँ की कविता में शब्द नहीं हैं
माँ की कविता कागजों पर नहीं उतरती
माँ रचती है ज़िंदा कविताएँ ।
माँ की देह से सर्जित देहें
उसकी कविताएँ
बहुत अच्छी लगती हैं
माँ को अपनी कविताएँ ।
महीनों सहेजकर रखा था माँ ने उन्हें
अपनी कोख में
मुस्काई थी माँ उनके संग
खेली थी माँ उनके संग
दुलारती- पुचकारती रही माँ
अपनी कविताओं को ।
बूडा गई है माँ अब
तलाशते हैं उसके कांपते हाथ
अपनी कविताओं को
न जाने कौन -सी हवा
ले गई है बहाकर उसकी कविताएँ ?
सुनाता हूँ माँ को अपनी कविताएँ
वह अपलक ताकती है
पता नहीं समझ आती हैं या नहीं
शब्दों से सर्जित मेरी कविताएँ
माँ को?
वह फेरती है सर पर हाथ
नहीं कहती है कुछ भी
भर लेती है हथेलियों में मुख,
बोलती कुछ भी नहीं।
भावातुर हो बह आती है
उसकी आंखों से स्नेह- नदी
डूब-डूब जाता हूँ उस नदी में।
माँ की कविता में शब्द नहीं हैं
शब्दों की कविताएँ
नहीं कर पाती स्पर्श
माँ की कविताओं का ,
काश! हम माँ-सी कविताएँ लिख पाते।
(*पुस्तक : लडकियां छूना चाहती हैं आसमान )
*सर्वाधिकार अशोक लव
Wednesday, 10 September 2008
चिरैया
मन-पाखी
क्या- क्या नहीं चाहता मन
कैसे-कैसे सजाता है स्वपन ।
आंखों में
उतार लेना चाहता है
सुनयनों में तैरती झीलें
बांहों में भर लेना चाहता है
आकाश ।
तपती दोपहरियों में चाहता है
तुहिन-कणों की शीतलता
कंपाते शीत में भर लेना चाहता है
देह की सम्पूर्ण ऊष्मा
कभी चाहता है क्षितिज को छूना।
मन है न अबोध शिशु-सा नहीं जानता सीमाएं
नहीं पढी उसने परिभाषाएं
विविशताओं की
इसीलिये
क्या-क्या नहीं चाहता मन।
(*पुस्तक: अनुभूतियों की आहटें ,अशोक लव )
____________________________
Tuesday, 9 September 2008
अधिकार
बाजों के पंजों में
चिडियों का मांस देख
नहीं छोड़ देत् चिडिया
खुले आकाश की सीमायें नापना ।
उड़ती है चिडिया
गुंजा देती है
चह-चहाटों से आकाश का कोना-कोना
बाज़ चाहे जिस गलतफहमी में रहें
चिडिया नहीं छोड़ती
आकाश पर अपना अधिकार।
*समर्पित है मेरी यह कविता सुश्री कंचन सिंह चौहान को ,जिन्होंने इसे अपने ब्लॉग पर उद्धृत किया और मेरा ब्लॉग पर आने का सिलसिला आरम्भ हुआ।
( पुस्तक --अनुभूतियों की आहटें )
Monday, 8 September 2008
अशोक लव : कवि या संत
कहाँ से पाई है
तुमने यह सहनशीलता
यह उदारता
यह नम्रता
कभी न शोक में रहने वाला
अशोक वृक्ष - सा व्यक्तित्व ?
तुम्हारे साहित्य को लेकर
क्या- क्या न कहा था
कुछ पूरावाग्रहों से ग्रस्तों ने
और तुमने तुलसी-वाणी को सत्य कर दिया था --
"बूँद आघात सहहीं गिरी कैसे
खल के वचन संत सह जैसे "
तुम कवि हो या संत?
की कवि रूप में संत ?
या संत रूप में कवि
की दोनों हो तुम?
भीतर - बाहर से एक
मनोविज्ञान भी नहीं मानता यह
पर तुम हो
तुम हो मनोविज्ञान के लिए एक चुनौती
आज के आदमी के लिए
एक सुंदर पाठ
और आज के साहित्य का जीवन -द्रव-अमृत ।
*आभा पूर्वे (सम्पादक - नया हस्तक्षेप , मशाकचक ,भागलपुर ) की इस कविता को सुप्रसिद्ध आलोचक डाक्टर अमरेंदर ने " अनुभूतियों की आहटें : ताज़ा गंधों की तलाश" लेख में उधृत किया है।
maine "समय साहित्य सम्मलेन" पुनसिया ,भागलपुर में apne लघुकथा - संग्रह "सलाम दिल्ली " पर आयोजित कार्यक्रम में पटना के एक लघुकथाकार के षडयंत्र का शालीनता से उत्तर दिया था । उसीसे प्रभावित होकर आभा पूर्वे ने यह कविता लिखी थी। वह लघुकथाकार समारोह से मुंह छिपाकर भाग गया था। मैंने साहित्य में राजनीती का हमेशा विरोध किया है।
तुमने यह सहनशीलता
यह उदारता
यह नम्रता
कभी न शोक में रहने वाला
अशोक वृक्ष - सा व्यक्तित्व ?
तुम्हारे साहित्य को लेकर
क्या- क्या न कहा था
कुछ पूरावाग्रहों से ग्रस्तों ने
और तुमने तुलसी-वाणी को सत्य कर दिया था --
"बूँद आघात सहहीं गिरी कैसे
खल के वचन संत सह जैसे "
तुम कवि हो या संत?
की कवि रूप में संत ?
या संत रूप में कवि
की दोनों हो तुम?
भीतर - बाहर से एक
मनोविज्ञान भी नहीं मानता यह
पर तुम हो
तुम हो मनोविज्ञान के लिए एक चुनौती
आज के आदमी के लिए
एक सुंदर पाठ
और आज के साहित्य का जीवन -द्रव-अमृत ।
*आभा पूर्वे (सम्पादक - नया हस्तक्षेप , मशाकचक ,भागलपुर ) की इस कविता को सुप्रसिद्ध आलोचक डाक्टर अमरेंदर ने " अनुभूतियों की आहटें : ताज़ा गंधों की तलाश" लेख में उधृत किया है।
maine "समय साहित्य सम्मलेन" पुनसिया ,भागलपुर में apne लघुकथा - संग्रह "सलाम दिल्ली " पर आयोजित कार्यक्रम में पटना के एक लघुकथाकार के षडयंत्र का शालीनता से उत्तर दिया था । उसीसे प्रभावित होकर आभा पूर्वे ने यह कविता लिखी थी। वह लघुकथाकार समारोह से मुंह छिपाकर भाग गया था। मैंने साहित्य में राजनीती का हमेशा विरोध किया है।
कविता जब लोहा हो जाती है
आंच के तीखे प्रहार सह
पिघलने के पश्चात
लोहा जब ठोस रूप लेता है
और चोट करता है
तो मज़बूत से मज़बूत दीवारें
चरमरा जाती हैं।
परिवेशी आंच
देह और भावों को पिघलाती हैं
मन के छापेखाने से शब्द
धडा धड छपते चले जाते हैं
इन्हें ही कविता कहतें हैं।
इसकी चोट आंच में तपे लोहे से कम नहीं हुती।
इसलिए कहीं
लोहा थामने वाले हाथ कटते हैं
कहीं कविता लिखने वाले।
इन कटे हाथों पर उग आते हैं
नए हाथ
इन नए हाथों से चलते लोहे कविता हो जाते हैं
इन नए हाथों से लिखी कवितायें लोहा हो जाती हैं।
(*अशोक लव ;पुस्तक -अनुभूतियों की आहटें )
पिघलने के पश्चात
लोहा जब ठोस रूप लेता है
और चोट करता है
तो मज़बूत से मज़बूत दीवारें
चरमरा जाती हैं।
परिवेशी आंच
देह और भावों को पिघलाती हैं
मन के छापेखाने से शब्द
धडा धड छपते चले जाते हैं
इन्हें ही कविता कहतें हैं।
इसकी चोट आंच में तपे लोहे से कम नहीं हुती।
इसलिए कहीं
लोहा थामने वाले हाथ कटते हैं
कहीं कविता लिखने वाले।
इन कटे हाथों पर उग आते हैं
नए हाथ
इन नए हाथों से चलते लोहे कविता हो जाते हैं
इन नए हाथों से लिखी कवितायें लोहा हो जाती हैं।
(*अशोक लव ;पुस्तक -अनुभूतियों की आहटें )
Sunday, 7 September 2008
कंचन सिंह चौहान : संवेदनशील कवयित्री
ब्लॉग की दुनिया में मेरा प्रवेश अचानक ही हो गया। अचानक " हृदय गवाक्ष " ब्लॉग में अपनी कविता "अधिकार" को पढ़कर चौंक गया। पता चला नासिरा शर्मा जी ने अपनी पुस्तक में इसे उद्धृत किया था ,जिसे कंचन सिंह चौहान ने अपने ब्लॉग में चर्चित किया था। सुखद अनुभव हुआ। अपनी प्रतिक्रिया लिखी ओर एक दिन मेल मिली। यहाँ से आरम्भ हुआ इस कर्मठ , संघर्ष शीला कवयित्री से सम्पर्क का सिलसिला। छोटी हैं पर ब्लॉग के संसार में लाने की प्रेरक हैं। "शिखरों से आगे " मेरा चर्चित उपन्यास है , जिस पर तीन एम् फिल हुई हैं , उसी के आधार पर ब्लॉग का नामकरण करने का श्रेय भी कंचन जी को ही जाता है। ब्लॉग बनने का कार्य भी उन्होंने ही किया। *.......
लड़की
झट बड़ी हो जाती है लड़की
और ताड़ के पेड़-सी लम्बी दिखने लगती है ,
उसकी आंखों में तैरने लगते हैं
वसंत के रंग-बिरंगे सपने
वह हवा पर तैर
घूम आती है गली-गली , शहर-शहर
कभी छू आती है आकाश
कभी आकाश के पार
चांदी के पेड़ों से तोड़ लाती है
सोने के फल ।
मन नहीं करता उसे सुनाएं
आग की तपन के गीत
मन नहीं चाहता
उसकी आंखों के रंग-बिरंगे सपने
हो जायें बदरंग।
हर लड़की को लांघनी होती है दहलीज
और दहलीज के पार का जीवन
सतापू खेलने ,गुड्डे-गुड्डियों की शादियाँ रचाने से
अलग होता है।
इसलिए आवश्यक हो जाता है हर लड़की
सहती जाए आग की तपन
सतापू खेलने के संग-संग
ताकि पार करने से पूर्व
वह तप चुकी हो और उसकी आंखों में नहीं तैरें
केवल वसंत के सपने ।*
(अनुभूतियों की आहटें , अशोक लव -१९९७)
और ताड़ के पेड़-सी लम्बी दिखने लगती है ,
उसकी आंखों में तैरने लगते हैं
वसंत के रंग-बिरंगे सपने
वह हवा पर तैर
घूम आती है गली-गली , शहर-शहर
कभी छू आती है आकाश
कभी आकाश के पार
चांदी के पेड़ों से तोड़ लाती है
सोने के फल ।
मन नहीं करता उसे सुनाएं
आग की तपन के गीत
मन नहीं चाहता
उसकी आंखों के रंग-बिरंगे सपने
हो जायें बदरंग।
हर लड़की को लांघनी होती है दहलीज
और दहलीज के पार का जीवन
सतापू खेलने ,गुड्डे-गुड्डियों की शादियाँ रचाने से
अलग होता है।
इसलिए आवश्यक हो जाता है हर लड़की
सहती जाए आग की तपन
सतापू खेलने के संग-संग
ताकि पार करने से पूर्व
वह तप चुकी हो और उसकी आंखों में नहीं तैरें
केवल वसंत के सपने ।*
(अनुभूतियों की आहटें , अशोक लव -१९९७)
Wednesday, 3 September 2008
सदाबहार बेटियाँ / * अशोक लव
बेटियाँ होती हैं ठंडी हवाएं,
तपते हृदय को शीतल करने वाली,
बेटियाँ होती हैं सदाबहार फूल,
खिली रहती हैं जीवन भर,
रहती हैं चाहे जहाँ,
महकाती हैं,
सजाती हैं,
माता पिता का आँगन
बेटियाँ होती हैं मरहम,
गहरे से गहरे घाव को भर देती हैं,
संजीवनी स्पर्श से
जीते हैं माता पिता,
बेटियों के संसार को सजाने की ललक लिये
बेटियाँ होती हैं,
माता पिता के सुनहरे स्वप्न।
पल भर में छोड़ जाती हैं बेटियाँ
माता पिता का आँगन
लेती हैं उनके धैर्य की परीक्षा।
असहाय माता पिता,
ताकते रह जाते हैं,
और चली जाती हैं बेटियाँ,
छोड़ जाती हैं पीछे पल पल की स्मृतियाँ।
माँ स्मृति के पिटारे से निकालती है,
छोटी छोटी फ्रॉकें
लगाती हैं उन्हे हृदय से
पिता निहारते हैं उँगलियाँ,
जिन्हे पकड़ा कर
सिखाया था बेटियों को
टेढ़े मेढ़े पाँव रख कर चलना,
कितनी जल्दी बड़ी हो जाती हैं बेटियाँ
कितनी जल्दी चली जाती हैं बेटियाँ
Subscribe to:
Posts (Atom)