बाजों के पंजों में
चिडियों का मांस देख
नहीं छोड़ देत् चिडिया
खुले आकाश की सीमायें नापना ।
उड़ती है चिडिया
गुंजा देती है
चह-चहाटों से आकाश का कोना-कोना
बाज़ चाहे जिस गलतफहमी में रहें
चिडिया नहीं छोड़ती
आकाश पर अपना अधिकार।
*समर्पित है मेरी यह कविता सुश्री कंचन सिंह चौहान को ,जिन्होंने इसे अपने ब्लॉग पर उद्धृत किया और मेरा ब्लॉग पर आने का सिलसिला आरम्भ हुआ।
( पुस्तक --अनुभूतियों की आहटें )
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