Monday, 8 September 2008

कविता जब लोहा हो जाती है

आंच के तीखे प्रहार सह
पिघलने के पश्चात
लोहा जब ठोस रूप लेता है
और चोट करता है
तो मज़बूत से मज़बूत दीवारें
चरमरा जाती हैं।

परिवेशी आंच
देह और भावों को पिघलाती हैं
मन के छापेखाने से शब्द
धडा धड छपते चले जाते हैं
इन्हें ही कविता कहतें हैं।

इसकी चोट आंच में तपे लोहे से कम नहीं हुती।

इसलिए कहीं
लोहा थामने वाले हाथ कटते हैं
कहीं कविता लिखने वाले।

इन कटे हाथों पर उग आते हैं
नए हाथ
इन नए हाथों से चलते लोहे कविता हो जाते हैं
इन नए हाथों से लिखी कवितायें लोहा हो जाती हैं।

(*अशोक लव ;पुस्तक -अनुभूतियों की आहटें )

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