आंच के तीखे प्रहार सह
पिघलने के पश्चात
लोहा जब ठोस रूप लेता है
और चोट करता है
तो मज़बूत से मज़बूत दीवारें
चरमरा जाती हैं।
परिवेशी आंच
देह और भावों को पिघलाती हैं
मन के छापेखाने से शब्द
धडा धड छपते चले जाते हैं
इन्हें ही कविता कहतें हैं।
इसकी चोट आंच में तपे लोहे से कम नहीं हुती।
इसलिए कहीं
लोहा थामने वाले हाथ कटते हैं
कहीं कविता लिखने वाले।
इन कटे हाथों पर उग आते हैं
नए हाथ
इन नए हाथों से चलते लोहे कविता हो जाते हैं
इन नए हाथों से लिखी कवितायें लोहा हो जाती हैं।
(*अशोक लव ;पुस्तक -अनुभूतियों की आहटें )
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