झट बड़ी हो जाती है लड़की
और ताड़ के पेड़-सी लम्बी दिखने लगती है ,
उसकी आंखों में तैरने लगते हैं
वसंत के रंग-बिरंगे सपने
वह हवा पर तैर
घूम आती है गली-गली , शहर-शहर
कभी छू आती है आकाश
कभी आकाश के पार
चांदी के पेड़ों से तोड़ लाती है
सोने के फल ।
मन नहीं करता उसे सुनाएं
आग की तपन के गीत
मन नहीं चाहता
उसकी आंखों के रंग-बिरंगे सपने
हो जायें बदरंग।
हर लड़की को लांघनी होती है दहलीज
और दहलीज के पार का जीवन
सतापू खेलने ,गुड्डे-गुड्डियों की शादियाँ रचाने से
अलग होता है।
इसलिए आवश्यक हो जाता है हर लड़की
सहती जाए आग की तपन
सतापू खेलने के संग-संग
ताकि पार करने से पूर्व
वह तप चुकी हो और उसकी आंखों में नहीं तैरें
केवल वसंत के सपने ।*
(अनुभूतियों की आहटें , अशोक लव -१९९७)
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