Wednesday, 10 September 2008

मन-पाखी


क्या- क्या नहीं चाहता मन
कैसे-कैसे सजाता है स्वपन ।
आंखों में
उतार लेना चाहता है
सुनयनों में तैरती झीलें
बांहों में भर लेना चाहता है
आकाश ।

तपती दोपहरियों में चाहता है
तुहिन-कणों की शीतलता
कंपाते शीत में भर लेना चाहता है
देह की सम्पूर्ण ऊष्मा
कभी चाहता है क्षितिज को छूना।

मन है न अबोध शिशु-सा नहीं जानता सीमाएं
नहीं पढी उसने परिभाषाएं
विविशताओं की
इसीलिये
क्या-क्या नहीं चाहता मन।

(*पुस्तक: अनुभूतियों की आहटें ,अशोक लव )
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