Thursday 20 November, 2008

लड़कियां छूना चाहती हैं आसमान / * अशोक लव




लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान
परन्तु उनके पंखों पर बाँध दिए गए हैं
परम्पराओं के
पत्थर ताकि वे उड़ान न भर सकें
और कहीं छू न लें आसमान।

लड़कियों की छोटी - छोटी ऑंखें
देखती हैं बड़े-बड़े स्वप्न
वे देखती हैं आसमान को ,
आँखों ही आँखों में
नापती हैं उसकी ऊंचाइओं को।

जन्म लेते ही
परिवार में जगह बनने के लिए
हो जाता है शुरू उनका संघर्ष
और होती जाती हैं ज्यों-ज्यों
बड़ी उनके संघर्षों का संसार बढ़ता जाता है।

गाँवों की लड़कियाँ
कस्बों-तहसीलों की लड़कियाँ
नगरों-महानगरों की लड़कियां
लडकियां तो लड़कियाँ ही होती हैं
उनके लिए जंजीरों के नाप
एक जैसे ही होते हैं।


लड़कियाँ पुरुषों की मांद में घुसकर
उन्हें ललकारना चाहती हैं
वे उन्हें अंगड़ाई लेते समय से
परिचित कराना चाहती हैं।

पुरुष उनके हर कदम के
आगे खींच देते हैं लक्ष्मण-रेखाएं
लड़कियाँ जान गई हैं -
पुरुषों के रावणत्व को
इसलिए वे
अपाहिज बन नहीं रहना चाहतीं बंदी
लक्ष्मण - रेखाओं में ,
वे उन समस्त क्षेत्रों के चक्रव्यूहों को भेदना
सीख रही हैं
जिनके रहस्य समेटरखे थे पुरुषों ने।

वे गाँवों की गलियों से लेकर
संसद के गलियारों तक की यात्रा करने लगी हैं
उनके हृदयों में लहराने लगा है
समुद्र का उत्साह
अंधडों की गति से
वे मार्ग की बाधाओं को उडाने में हैं सक्षम।

वे आगे बढ़ना चाहती हैं
इसलिए पढ़ना चाहती हैं
गांवों की गलियों से निकल
स्कूलों की ओर जाती
लड़कियों की कतारों की कतारें
सड़कों पर
साइकिलों की घंटियाँ बजाती,
बसों में बैठी
लड़कियों की कतारों की कतारें
लिख रही हैं
नया इतिहास।

लोकल ट्रेनों -बसों से
कालेजों - दफ्तरों की ओर जाती लडकियां
समय के पंखों पर सवार होकर
बढ़ रही हैं
छूने आसमान।

उन्होंने सीख लिया है -
पुरूषपक्षीय परम्पराओं के चिथड़े -चिथड़े
उन्होंने कर लिया है निश्चय
बदलने का अर्थों को ,
उन ग्रंथों में रचित
लड़कियों विरोधी गीतों का
जिन्हें रचा था पुरुषों ने
अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए।

लड़कियाँ
अपने रक्त से लिख रही हैं
नए गीत
वे पसीने की स्याही में डुबाकर देहें
रच रही हैं
नए ग्रंथ।

वे खूब नाच चुकी हैं

पुरुषों के हाथों की कठपुतलियाँ बनकर ,

पुरुषों ने कहा था --लेटो

वे लेट जाती थीं ,

पुरुषों ने कहा था --उठो

वे उठ जाती थीं,

पुरुषों ने कहा था - झूमो

वे झूम जाती थीं।

अब लड़कियों ने थाम लिए हैं

कठपुतलियाँ नचाते ,

पुरुषों के हाथ

वे अब उनके इशारों पर

न लेटती हैं

न उठती हैं

न घूमती हैं

न झूमती हैं

वे पुरुषों के एकाधिकार के तमाम क्षेत्रों में

कराने लगी हैं प्रवेश

लहराने लगी हैं उन तमाम क्षेत्रों में

अपनी सफलताओं के ध्वज ,

गाँवों - कस्बों, नगरों - महानगरों की लड़कियों का

यही है अरमान

वे अब छू ही लेंगीं आसमान।

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* पुस्तक - लड़कियां छूना चाहती हैं आसमान

@सर्वाधिकार सुरक्षित







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